रॉबर्ट ब्लाय की एक कविता...
हम क्यों नहीं मरते : रॉबर्ट ब्लाय
(अनुवाद : मनोज पटेल)
सितम्बर बीतते-बीतते तमाम आवाजें
बताने लगती हैं आपको कि आप मर जाएंगे.
वह पत्ती, वह सर्दी कहती है यह बात.
सच कहती हैं वे सब.
हमारी तमाम आत्माएं - वे क्या
कर सकती हैं इस बारे में ?
कुछ भी नहीं. वे तो हैं ही अंश
अदृश्य-अगोचर की.
हमारी आत्माएं तो
उत्सुक रही हैं घर जाने के लिए.
"देर हो गई है," वे बोलती हैं
"दरवाजा बंद कर दो और चलो."
देह राजी नहीं होती. वह कहती है,
"वहां उस पेड़ के नीचे
हमने गाड़े थे कुछ लोहे के छर्रे.
चलो निकालते हैं उन्हें."
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Manoj Patel
deh raazi nahi hoti . wah kahati hai
ReplyDeletewahaan us ped ke neeche
hamne gaade the kuchh lohe ke chharre
chalo nikalte hain unhen ...
bahut marmik ...
sundar anuwad ..
आत्मा घर लौटने को उत्सुक है...पर देह नहीं इसीलिए हम नहीं मरते...बहुत सच कहा...
ReplyDeleteहमारी आत्माएं तो
ReplyDeleteउत्सुक रही हैं घर जाने के लिए.
इस कविता का Tranströmer द्वारा swedish में किया गया अनुवाद पढ़ा है... आज अपनी भाषा में भी पढ़ ली कविता! आभार!
In the words of Tranströmer, "Teoretiskt sett kan poesiöversättning betraktas som en absurditet. Men i praktiken måste vi tro på översättning av poesi" i.e Theoretically, poetry translation can be treated as an absurdity. But in practice, we must believe in the translation of poetry and I must say, this blog lives upto the belief aptly!!!
बेहद सुन्दर अनुवाद!
गहरे अर्थ लिए रोचक अभिव्यक्ति का सुंदर अनुवाद ॥सामी मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है...http://mhare-anubhav.blogspot.com/
ReplyDeletebahut sundr abhivyakti
ReplyDeleteबहुत सुंदर कविता और उतना ही अच्छा अनुवाद ...........!!
ReplyDeleteमार्मिक कविता ...आभार
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