अरुंधती राय ने 'गार्जियन' को फोन पर दिए एक इंटरव्यू में आक्युपाई वाल स्ट्रीट सहित कई मुद्दों पर बात-चीत की है. इस बातचीत के महत्वपूर्ण अंश प्रस्तुत हैं...
संकट खड़ा करने वाले लोग तो समाधान लेकर नहीं आएँगे : अरुंधती राय
(अनुवाद/सम्पादन : मनोज पटेल)
मैं आक्युपाई वाल स्ट्रीट आन्दोलन में आखिर क्यों न शामिल होना चाहती? इतने सालों से मैं जो कुछ भी करती आ रही हूँ उसे देखते हुए मुझे, बौद्धिक और सैद्धांतिक रूप से, कभी न कभी यहाँ ऐसा घटित होना बिलकुल संभव लगता था. मगर फिर भी मैनें इसके घटित होने के विस्मय और खुशी से खुद को वंचित नहीं किया. और स्वाभाविक रूप से मैं इसके विस्तार, आकार, बुनावट और प्रकृति को स्वयं ही देखना चाहती थी. तो जब मैं वहां पहली बार गई तो इतने सारे तम्बुओं की वजह से वह जगह मुझे विरोध प्रदर्शन की बजाए अवैध रिहाइशी इलाके सी लगी, मगर थोड़ी देर में ही वह अपना अर्थ मुझपर उजागर करने लगी. कुछ लोग जमीन पर कब्जा जमाए हुए थे वहीं दूसरे लोगों के लिए वह संगठित होने का केंद्र और चीजों के जरिए विचार करने की जगह था. जब मैनें पीपुल्स यूनिवर्सिटी में भाषण दिया तो मुझे लगा कि मैं संयुक राज्य अमेरिका में एक नई राजनैतिक भाषा प्रस्तुत कर रही हूँ, एक ऎसी राजनैतिक भाषा जिसे अभी कुछ दिनों पहले तक कुफ्र माना गया होता.
मुझे नहीं लगता कि यह प्रतिरोध महज किसी इलाके या भू-भाग पर भौतिक रूप से कब्जा जमाए जाने से सम्बंधित है, बल्कि इसका सम्बन्ध एक नई राजनैतिक चेतना की चिंगारी को सुलगाने से है. मुझे नहीं लगता कि राज्य लोगों को किसी ख़ास जगह पर कब्जा जमाने की अनुमति देगा जब तक कि उसे यह न लगता हो कि ऎसी अनुमति का परिणाम आखिरकार शिथिलता और निष्क्रियता ही निकलेगा, और प्रतिरोध का असर एवं महत्त्व समाप्त हो जाएगा. यह तथ्य सत्ता प्रतिष्ठान की हताशा और उसमें व्याप्त भ्रम का परिचायक है कि न्यूयार्क और दूसरी जगहों पर लोगों को मार-पीट कर उन जगहों से निकाला जा रहा है. मेरे ख्याल से इस आन्दोलन को विचारों एवं कार्रवाई का ऐसा आन्दोलन होना चाहिए जिसमें विस्मय का तत्व आन्दोलनकारियों के साथ ही बना रहे. हमें सरकार और पुलिस को अचम्भे में डाल देने वाले बौद्धिक हमले और भौतिक प्रदर्शन के तत्व को सुरक्षित रखना होगा. आन्दोलन को अपनी कल्पनाशीलता बनाए रखना होगा क्योंकि किसी इलाके पर कब्जा ज़माना ऎसी चीज नहीं है जिसकी अनुमति इस आन्दोलन को अमेरिका जैसा ताकतवर और हिंसक राज्य देगा.
भले ही लोगों को उनके एकत्र होने की जगहों से खदेड़ा जा रहा हो, मुझे लगता है कि लोग अलग-अलग तरीकों से पुनः जमा होते रहेंगे और दमन की वजह से पैदा होने वाली नाराजगी वस्तुतः आन्दोलन का विस्तार ही करेगी. अंततः आन्दोलन को बड़ा ख़तरा इस बात से है कि इसे शीघ्र ही होने वाले राष्ट्रपति चुनाव अभियान से जोड़ा जा सकता है. मैनें पहले भी युद्ध विरोधी आन्दोलन के दौरान यहाँ ऐसा होता देखा है और भारत में तो हमेशा ही इसे घटित होते देखती रहती हूँ. अंततः सारी ऊर्जा "बेहतर आदमी" के पक्ष में माहौल बनाने में खप जाती है. यहाँ वह "बेहतर आदमी" बराक ओबामा हैं जो कि हकीकतन दुनिया भर में युद्ध का विस्तार कर रहे हैं. चुनाव अभियान राजनैतिक गुस्से एवं मूलभूत राजनैतिक समझ को इस महान रंगारंग कार्यक्रम में तिरोहित कर देते हैं जिसके बाद हम सभी खुद को पुनः ठीक उसी जगह पर पाते हैं.
मुझे उम्मीद है कि आक्युपाई आन्दोलन में शामिल लोगों में इतनी राजनैतिक समझ है कि वे यह समझ सकें कि उन्हें अमेरिकी कारपोरेशनों द्वारा किए जा रहे धन के अश्लील जमाव से वंचित किया जाना वर्जन और युद्ध की उसी व्यवस्था के हिस्से हैं जिन्हें ये कारपोरेशन भारत, अफ्रीका और मध्य-पूर्व जैसी जगहों पर चला रहे हैं. हम जानते हैं कि महान मंदी के समय से ही हथियारों का निर्माण और युद्ध का निर्यात वे प्रमुख तरीके रहे हैं जिनके द्वारा अमेरिका ने अपनी अर्थव्यवस्था को बढ़ावा दिया है.
हम अक्सर भ्रम में रहते हैं या "पूंजीवाद" शब्द के प्रयोग से बचने के लिए क्रोनी कैपटिलिज्म या नवउदारवाद जैसे विचारों का कमजोर प्रयोग करते हैं, मगर यदि एक बार आप ठीक से देख लें कि भारत और अमेरिका में क्या हो रहा है -- "लोकतंत्र" लिखे हुए गत्ते के एक डिब्बे में पैक अमेरिकी अर्थव्यवस्था का यह माडल पूरी दुनिया के देशों पर थोपा जा रहा है, जिसमें यदि जरूरी हुआ तो सेना की भी सहायता ली जा रही है, तो आप पाएंगे कि अर्थव्यवस्था के इस माडल का नतीजा यह निकला है कि आज अमेरिका के सबसे अमीर चार सौ लोगों के पास यहाँ की आधी जनसंख्या के बराबर की संपत्ति है. हजारों लोग बेघर और बेरोजगार हो रहे हैं जबकि कारपोरेशनों को बिलियनों डालर के बेल आउट पैकेज दिए जा रहे हैं.
भारत के 100 सबसे अमीर लोगों के पास देश के एक चौथाई सकल राष्ट्रीय उत्पाद के बराबर की संपत्ति है. कोई बात है जो भीषण रूप से गलत है. किसी व्यक्ति या किसी कारपोरेशन को इस तरह की असीमित दौलत के संचय की इजाजत नहीं दी जा सकती. इनमें मेरे जैसे खूब बिकने वाले लेखक भी शामिल होने चाहिए जिन पर रायल्टी की बरसात होती रहती है. पैसा ही हमारा इकलौता पारितोषिक नहीं होना चाहिए. इतना ज्यादा मुनाफ़ा कमाने वाले कारपोरेशन सबकुछ हथिया सकते हैं : मीडिया, विश्वविद्यालय, खदान, शास्त्र उद्योग, बीमा अस्पताल, दवा कम्पनी, गैर सरकारी संगठन... वे जजों को खरीद सकते हैं, पत्रकारों, राजनीतिकों, प्रकाशन गृहों, टी वी स्टेशनों, किताब की दुकानों और यहाँ तक कि एक्टिविस्टों को भी. इस तरह का एकाधिकार, कारोबार का यह प्रतिकूल-स्वामित्व (Cross Ownership) समाप्त होना चाहिए.
व्यक्तियों और कारपोरेशनों के पास धन का निरंकुश जमाव समाप्त होना चाहिए. अमीरों की दौलत को उनके बच्चों द्वारा उत्तराधिकार में प्राप्त किए जाने पर रोक लगनी चाहिए. सरकार को उनकी संपत्ति लेकर उसे पुनः वितरित कर देना चाहिए.
यहाँ अमेरिका में जो होता रहा है वह उसके बिलकुल उलट है जो भारत में आप देखते हैं. भारत में गरीबी इतनी विशाल है कि राज्य उसे नियंत्रित नहीं कर सकता. वह लोगों को मार सकता है मगर ग़रीबों को सड़कों पर भीड़ लगाने से नहीं रोक सकता, शहरों, पार्कों और रेलवे प्लेटफार्मों पर आने से नहीं रोक सकता. जबकि यहाँ अमेरिका में, ग़रीबों को अदृश्य कर दिया गया है क्योंकि सफलता का जो माडल दुनिया के सामने रखा गया है उसे किसी भी हालत में गरीबी का प्रदर्शन नहीं करना चाहिए. इसे किसी भी हालत में अश्वेतों की दशा नहीं दिखानी चाहिए. यह केवल सफल चेहरों को ही दिखा सकता है, बास्केटबाल खिलाड़ियों को, संगीतकारों को, कोंडालीजा राईस और कॉलिन पावेल को. मगर मुझे लगता है कि समय आएगा जब आन्दोलन को किसी तरह सिर्फ गुस्से के प्रदर्शन से कुछ अधिक की व्यवस्था सूत्रबद्ध करनी पड़ेगी.
एक लेखक के रूप में मैनें कई बार कहा है कि अरबपतियों की अश्लील दौलत पर दावा जताने के अतरिक्त हमें जिस चीज पर फिर से दावा ठोंकने की जरूरत है, वह है भाषा. जब वे लोकतंत्र और आजादी की बात करते हैं तब वे भाषा का इस्तेमाल इन शब्दों के ठीक विपरीत अर्थों के लिए करते रहे हैं. इसलिए मुझे लगता है कि 'आक्युपेशन' शब्द को सर के बल खड़ा कर देना अच्छी बात होगी. हालांकि मैं यह कहूंगी कि इसपर कुछ और काम किए जाने की जरूरत है. हमें कहना चाहिए, "आक्युपाई वाल स्ट्रीट, नाट ईराक," "आक्युपाई वाल स्ट्रीट, नाट अफगानिस्तान," "आक्युपाई वाल स्ट्रीट, नाट फिलिस्तीन,". दोनों बातों को एकसाथ रखे जाने की जरूरत है अन्यथा शायद लोग संकेतों को न समझ सकें.
अमेरिका की तरह ही भारत की भी हालत है. यहाँ भारतीय जनता पार्टी नाम का दक्षिणपंथी दल है जो बहुत विद्वेषपूर्ण और खुल्लमखुल्ला दुष्ट है और फिर हमारे यहाँ कांग्रेस पार्टी है जो और भी बुरे काम करती है लेकिन वह इन कामों को रात के अँधेरे में करती है. और लोगों को लगता है कि उनके पास बस यही विकल्प है कि वे इसे या उसे वोट दें. मेरा मतलब यह है कि आप जिस किसी को भी वोट दें, उसे राजनैतिक बहस की सारी आक्सीजन नहीं सोख लेनी चाहिए. यह सिर्फ एक कृत्रिम रंगमंच है जिसे इस तरह बनाया गया है कि वह गुस्से को सोख ले और आपको ऐसा महसूस हो कि यही वह सब कुछ है जिसके बारे में आपको विचार करना है या बात करनी है जबकि हकीकतन आप दो किस्म के ऐसे वाशिंग पाउडरों में फंसे होते हैं जो एक ही कम्पनी बनाती है.
लोकतंत्र का अब वही मतलब नहीं रहा जो हुआ करता था. इसे वापस कारखाने में ले जाकर इसके सारे संस्थानों को खोखला कर दिया गया है, और इसे मुक्त बाजार की सवारी के रूप में हमें वापस कर दिया गया है जो निगमों की, निगमों के द्वारा और निगमों के लिए है. यदि हम वोट दें भी तो हमें अपने विकल्पों पर कम समय और कम बौद्धिक ऊर्जा बर्बाद करनी चाहिए और अपनी निगाह गेंद पर केन्द्रित रखनी चाहिए.
यह एक खूबसूरत और बड़े फंदे में फंसने जैसा है. मगर ऐसा सभी जगहों पर होता है और होता रहेगा. मुझे भी पता है कि मेरे भारत वापस जाने के बाद यदि कल को भारतीय जनता पार्टी सत्ता में आती है तो व्यक्तिगत रूप से मैं कांग्रेस की सता की बनिस्बत कहीं अधिक मुसीबत में होऊंगी. मगर इससे जो किया जाना है, उसपर कोई फर्क नहीं पड़ता. क्योंकि वे हमेशा पूरी तरह से मिलजुल कर काम करते हैं. इसलिए मैं लोगों से यह कहने में अपने तीन मिनट भी नहीं बर्बाद करूंगी कि वे इसे या उसे अपने वोट दें.
मुझे नहीं पता कि मेरा अगला उपन्यास कब आएगा... मुझे सचमुच नहीं पता. उपन्यास बहुत रहस्यमय, अव्यवस्थित और नाजुक होते हैं. अभी तो हमने अपने हेलमेट पहन रखे हैं और हम चौतरफा कांटेदार तारों से घिरे हैं.
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('गार्जियन' से साभार)
बेहतर आदमी…बराक ओबामा…अमेरिका की अर्थव्यवस्था पर…खुद के जैसे खूब बिकने वाले लेखक भी शामिल होने चाहिए ---यह बात बहुत पसन्द आई……गरीबी और अमीरी के ये तो वो आँकड़े हैं, जो सरकार सामने लाती है या सामने हैं, असलियत और कड़ी होगी। अमेरिका के दिखाए जा रही गरीबी की बात…कुछ खोलती है। …लोकतंत्र निगमों के लिए, निगमों द्वारा और निगमों का…वाह! क्या परिभाषा है…
ReplyDeleteलोकतंत्र के नाम पर पैसे का जोड़तोड़...बहुत सारे प्रश्न उठाती पोस्ट !
ReplyDeleteBadhiya lekh ka badhiya anuvaad.. - Reena Satin
ReplyDeleteदो किस्म के वाशिंग पावडर ....जो एक ही कंपनी बनाती है.....बेहद दिलचस्प लेख ......!!
ReplyDeleteकुछ भी बात सिखने लायक नहीं.
ReplyDeleteab hum global duniya me rahte hai,mere vichar chahe utopiya hi lage,par ab hame samsyao ko visv star par hi sochanahoga or samadhan bhi visv star par saari duniya ke sajag or samajdar logo ko ek manch par aakar nikalana hoga.aise log duniya bhar se aage aaye jo purvagrah se mukt,maan pratistha se mukta,vicharchil,netik mulyo par chalnevale log milkar vichar kare,ek aisi visv vyvastha ho..janha sab sajah saral jivan jiye,badi companiyo,bade corporate se mukt duniya..ek organisation jisme duniya ke darshnik,vegyanik,lekhak,vicharak,samajsevak saamil ho,agenda banaye,duniya ko convice kare....hum behtar duniya bana sakte hai..jaraa koshish kare....
ReplyDeleteअरूंधती राय पूंजीवाद की आलोचना तो करती है लेकिन नहीं बताती है कि आखिर खरबपतियों के खरबों रूपयों को किस प्रकार वापस लिया जाए। सिर्फ आलोचना करके एक खूब बिकने वाली लेखिका अपनी सीमा को ही सीमांकित कर रही है। उन्हें बताना चाहिए कि किस तरह यह अश्लील संचय का वितरण किया जाए या संचय को रोका जाए। आलोचना तो सभी कर लेते हैं, खूब नहीं बिकने वाले लेखक भी।
ReplyDeleteसचमुच कांग्रेस और भाजपा एक ही वाशिंग पावडर के दो नाम हैं। पर लोग राजनीति से अछूते नहीं रह सकते, इसलिए राजनीति के वास्तविक मायनों को सामने लाना होगा। राजनीति जो सत्ता और ताकत के लिए नहीं, बेहतर इंसानियत और समाज के लिए हो।
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