पोलिश कवि जिबिग्न्यु हर्बर्ट की एक कविता...
हत्थेदार कुर्सियां : जिबिग्न्यु हर्बर्ट
(अनुवाद : मनोज पटेल)
किसने कभी सोचा होगा कि जोश से भरी एक गर्दन किसी दिन कुर्सी का एक हत्था हो जाएगी, या खुशी से उड़ने के लिए बेकरार पाँव चार साधारण पायों के रूप में तन कर खड़े हो जाएंगे? हत्थेदार कुर्सियां पहले सीधी-साधी पुष्प-भक्षी जीव हुआ करती थीं. जाने कैसे उन्होंने खुद को बड़ी आसानी से पालतू हो जाने दिया और आज वे चौपायों की सबसे अधम प्रजाति हैं. उन्होंने अपना सारा जिद्दीपन और साहस गँवा दिया है. वे महज विनम्र हैं. उन्होंने कभी किसी को न तो कुचला है, न ही कभी किसी के साथ सरपट दौड़ लगाई है. उन्हें निश्चित रूप से अपनी निरर्थक ज़िंदगी के बारे में पता है.
हत्थेदार कुर्सियों की हताशा उनकी चरचराहट से जाहिर होती है.
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Manoj Patel
क्या कल्पनाशीलता है! वाह! आखिरी पंक्ति बड़े मार्के की है :'हत्थेदार कुर्सियों की हताशा उनकी चरचराहट से ज़ाहिर होती है'.
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत प्रस्तुति |
ReplyDeleteबधाई स्वीकारें ||
वाह..अद्भुत कल्पना!
ReplyDeleteचरचराहट ही तो उनकी अभिव्यक्ति है..
ReplyDeleteबेबसी .........बिवस हो कर अच्छी कविता के लिए आभार ....!!
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