मरम अल-मसरी की चार कविताएँ...
मरम अल-मसरी की चार कविताएँ
(अनुवाद : मनोज पटेल)
नहीं...
तुम्हारा दरवाजा नहीं है यह
जिस पर मैं दस्तक दे रही हूँ.
यह वो दरवाजा नहीं है
जिसके पीछे से
मुझे सुनाई दे रही है
किसी की आहट.
वह दरवाजा नहीं है यह
जो उखड़ा हुआ है अपनी चौखट से
अब भी इन्कार करता हुआ
खुलने से.
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तुम तज दोगे मुझे ?
तो फिर
कौन देखेगा मुझे
अपनी नग्नता की पोशाक में
जिसमें
मैं दिखती हूँ
सचमुच खूबसूरत.
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तुम्हारी छाती से लगी हुई
बटोरती जा रही हूँ
तुम्हारी छोड़ी हुई साँसों को
उस दिन के लिए
जब रुकने वाली होगी मेरी सांस.
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एक पुरुष, मुंह है जिसके पास
मगर बोलता नहीं वह,
होंठ हैं
मगर चूमता नहीं.
एक पुरुष, नाक है जिसके पास
मगर सूंघता नहीं वह,
कान हैं, मगर सुनता नहीं.
उदास आँखें हैं
उसके पास
और लम्बी बाहें
जो नहीं जानतीं
लेना अपने आगोश में.
एक काक भगौड़े ने
छल लिया
मेरी गौरैयों को.
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Manoj Patel
बहुत ही लाजवाब कवितायेँ ! मरम-अल-मसरी की इन मर्मबेधी कविताओं के अनुवाद और प्रस्तुति के लिए आभार मनोज जी !
ReplyDeleteबेहद सच्चे और पारदर्शी मन से रची ऐसी खूबसूरत कविताओं को अपनी जुबान में उपलब्ध कराने के लिए मनोज का तहे दिल से शुक्रिया।
ReplyDelete'अब भी इनकार करता हुआ खुलने से'......'एक काक भगोड़े ने/ छल लिया मेरी /गौरैया को' कितनी सादगी के साथ !
ReplyDeleteइतना शानदार काम, बिना रुके करते चले जाने के संकल्प को सलाम.
एक काक भगौड़े ने छल लिया गौरैयों को...वाह !
ReplyDeleteअच्छी कविताएं हैं.
ReplyDeleteये शानदार काम अनवरत रहे .. शुभकामनाएँ !
ReplyDeleteएक काक भगौड़े ने छल लिया गोरियों को वाह बहुत ही गहन और खूबसूरत अभिव्यक्ति
ReplyDeletewakaee aapake kam ka koee sani nahi manoj bhaee. mai aapki harek post jaroor padhta hu. mohan srotriy ji ki bat se mai sahmat hu ki aap itihas rach rahe hai. aapke jajbe ko salam.
ReplyDeletesantosh chaturvedi.
जब से इस ब्लॉग को देखा है अद्भुत कविताएं पढ़ने को मिल रही हैं।
ReplyDelete"एक काक भगौड़े ने छल लिया गौरैया को"..... बेहद मर्मस्पर्शी कवितायें....
ReplyDeleteआपका अनुवाद ..आहा !!!
लगता ही नहीं कि अनुवाद है ...बधाई
kya kahne manoj ji....
ReplyDeleteअच्छा स्पर्श कलमकार का ;;;;;
ReplyDeleteबहुत ही गहरी और सूक्ष्म संवेदनाएं
ReplyDeleteभावनाओं की मौत के शब्दों से कवितायेँ बहुत शानदारी से गुथी हुई हैं !
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