Monday, December 19, 2011

अफ़ज़ाल अहमद सैयद : मिट्टी की कान

आज अफ़ज़ाल अहमद सैयद की यह कविता, 'मिट्टी की कान', यानी मिट्टी की खदान...  

















मिट्टी की कान : अफ़ज़ाल अहमद सैयद 
(लिप्यंतरण : मनोज पटेल)

मैं मिट्टी की कान का मज़दूर हूँ 
काम ख़त्म हो जाने के बाद हमारी तलाशी ली जाती है 
हमारे निगराँ हमारे बंद बंद अलग कर देते हैं 
फिर हमें जोड़ दिया जाता है 
हमारे निगराँ हमें लापरवाही से जोड़ते हैं 

पहले दिन मेरे किसी हिस्से की जगह 
किसी और का कोई हिस्सा जोड़ दिया गया था 
होते होते 
एक एक रवाँ 
किसी न किसी और का हो जाता है 
खबर नहीं मेरे मुख्तलिफ़ हिस्सों से जुड़े हुए मज़दूरों में कितने 
कान बैठने से मर गए होंगे ? 
मिट्टी चुराने के एवज ज़िंदा जला दिए गए होंगे 

मिट्टी की कान में कई चीज़ों पर पाबंदी है 
मिट्टी की कान में पानी पर पाबंदी है 
पानी मिट्टी की हाकमियत को ख़त्म करके उसे अपने साथ बहा ले जाता है 

अगर निगरानों को मालूम हो जाए 
कि हमने मिट्टी की कान में आने से पहले पानी पी लिया था 
तो हमें शिकंजे में उल्टा लटकाकर 
सारा पानी निचोड़ लिया जाता है 
और पानी के जितने कतरे बरामद होते हैं 
उतने दिनों की मज़दूरी काट ली जाती है 

मिट्टी की कान में आग पर पाबंदी नहीं है 
कोई भी निगराँ आग पर पाबंदी नहीं लगाते 
आग कान के मुख्तलिफ़ हिस्सों के दरमियान दीवार का काम करती है 
मैं भी आग की चारदीवारियों के दरमियान काम करता हूँ 
कोई भी मज़दूरी आग की चारदीवारियों के बगैर नहीं हो सकती 

मिट्टी की कान में आग का एक और काम भी है 
कभी कभी निगराँ सारी कान को अचानक खाली कराना चाहते हैं 

उस वक़्त कान में आग फैला दी जाती है 
उस दिन कोई अगर सलामत निकल जाए 
तो उसकी तलाशी नहीं ली जा सकती 
मिट्टी ऐसे ही दिन चुराई जा सकती है 
मैनें एक ऐसे ही दिन मिट्टी चुराई थी 

वो मिट्टी मैनें एक जगह रख दी है 
एक ऐसे ही आग भड़काए जाने के दिन 
मैनें बेकार आज़ा के अंबार से 
अपने नाखून और अपने दिल की लकीर चुराई थी 
और उन्हें भी एक जगह रख दिया है 

मुझे किसी न किसी तरह आग की खबर हो जाती है 
और मैं चोरी के लिए तैयार हो जाता हूँ 

मैनें कूड़े के ढेर पर एक पाँव देख रखा है 
जो मेरा नहीं है 
मगर बहुत खूबसूरत है 
अगली आग लगने के वक़्त उसे उठा ले जाऊंगा 
और उसके बाद कुछ और-- और कुछ और-- और कुछ और 

एक दिन मैं अपनी मर्ज़ी का एक पूरा आदमी बनाऊंगा 
मुझे उस पूरे आदमी की फिक्र है 
जो एक दिन बन जाएगा 
और मिट्टी की कान में मज़दूरी नहीं करेगा  
मैं उसके लिए मिट्टी चुराऊंगा 
और तहक़ीक करूंगा 
कान में आग किस तरह लगती है 
और कान में आग लगाऊँगा  
और मिट्टी चुराऊँगा 

इतनी मिट्टी कि उस आदमी के लिए 
एक मकान, एक पानी अंबार करने का कूज़ा और एक चिराग बना दूँ 

और चिराग के लिए आग चुराऊँगा  
आग चोरी करने की चीज़ नहीं 
मगर एक न एक ज़रुरत के लिए हर चीज़ चोरी की जा सकती है 

फिर उस आदमी को मेरे साथ रहना गवारा हो जाएगा 
आदमी के लिए अगर मकान हो, पीने के पानी का अम्बार हो 
और चिराग में आग हो 
तो उसे किसी के साथ भी रहना गवारा हो सकता है 
मैं उसे अपनी रोटी में शरीक करूंगा 
और अगर रोटियाँ कम पड़ीं 
तो रोटियाँ चुराऊँगा 

वैसे भी निगराँ उन मज़दूरों को जो कान में शोर नहीं मचाते 
बची खुची रोटियाँ देते रहते हैं 

मैनें मिट्टी की कान में कभी कोई लफ्ज़ नहीं बोला 
और उससे बाहर भी नहीं 
मैं अपने बनाए हुए आदमी को अपनी ज़बान सिखाऊंगा 
और उससे बातें करूंगा  

मैं उससे मिट्टी की कान की बातें नहीं करूंगा 
मुझे वो लोग पसंद नहीं जो अपने कामकाज की बातें घर जाकर भी करते हैं 

मैं उससे बातें करूंगा 
गहरे पानियों के सफ़र की 

और अगर मैं उसके सीने में कोई धड़कने वाला दिल चुराकर लगा सका 
तो उससे मुहब्बत की बातें करूंगा 
उस लड़की की जिसे मैनें चाहा है 
और उस लड़की की जिसे वह चाहेगा 

मैं उस आदमी को हमेशा अपने साथ नहीं रखूंगा 
किसी भी आदमी को कोई हमेशा अपने साथ नहीं रख सकता 
मैं उसमें सफ़र का हौसला पैदा करूंगा 
और उसे उस खित्ते में भेजूंगा 
जहाँ दरख़्त मिट्टी में पानी डाले बगैर निकल आते हैं 

और वह उन बीजों को मेरे लिए ले आएगा 
जिनके उगने के लिए 
पानी की ज़रुरत नहीं होती 

मैं रोज़ाना एक एक बीज 
मिट्टी की कान में बोता जाऊंगा 
बोता जाऊंगा 
एक दिन किसी भी बीज के फूटने का मौसम आ जाता है 

मिट्टी की कान में मेरा लगाया हुआ बीज फूटेगा 
और पौधा निकलना शुरू होगा 

मेरे निगराँ बहुत परेशान होंगे 
उन्होंने कभी कोई दरख़्त नहीं देखा है 
वे बहुत दहशतज़दा होंगे और भागेंगे 

मैं किसी भी निगराँ को भागते देखकर 
उसके साथ कान के दूसरे दहाने का पता लगा लूँगा 
किसी भी कान का दूसरा दहाना मालूम हो जाए तो 
उसकी दहशत निकल जाती है 

जब मेरी दहशत निकल जाएगी 
मैं आग की दीवार से गुज़र कर 
मिट्टी की कान को दूर-दूर जाकर देखूंगा 
और एक वीरान गोशे में 
ऊपर की तरफ एक सुरंग बनाऊँगा 

सुरंग ऎसी जगह बनाऊँगा 
जिसके ऊपर 
एक दरिया बह रहा हो 

मुझे एक दरिया चाहिए 

मैं वह आदमी हूँ जिसने अपना दरिया बेचकर 
एक पुल खरीदा था 
और चाहा था कि अपनी गुजर औकात 
पुल के महसूल पर करे 
मगर बे-दरिया के पुल से कोई गुजरने नहीं आया 
फिर मैनें पुल बेच दिया 
और एक नाव खरीद ली 
मगर बे-दरिया की नाव को कोई सवारी नहीं मिली 

फिर मैनें नाव बेच दी 
और मजबूत डोरियों वाला एक जाल खरीद लिया 
मगर बे-दरिया के जाल में कोई मछली नहीं फंसी 

फिर मैनें जाल बेच दिया 
और एक छतरी खरीद ली 
और बे-दरिया की ज़मीन पर मुसाफिर को साया फराहम करके गुजर करने लगा 

मगर धीरे धीरे 
मुसाफिर आने बंद होते गए 

और एक दिन जब 
सूरज का साया मेरी छतरी से छोटा हो गया 
मैनें छतरी बेच दी 
और एक रोटी खरीद ली 

किसी भी तिज़ारत में यह आखिरी सौदा होता है 

एक रात 
या कई रातों के बाद 
जब वह रोटी ख़त्म हो गई 
मैनें नौकरी कर ली 

नौकरी मिट्टी की कान में मिली 
                    :: :: :: 

कान : खदान 
निगराँ : निरीक्षक 
बंद : अंगों के जोड़ 
हाकमियत : सत्ता 
आज़ा : अंग 
अंबार : ढेर 
तहक़ीक : खोज 
कूज़ा : कुल्हड़ 
खित्ता : इलाका 
गोशा : कोना 
महसूल : किराया 
Afzal Ahmad Syed افضال احمد سيد manojpatel 

3 comments:

  1. बेहतरीन!बेहतरीन!बेहतरीन.... इस एक कविता को पढ़ कर ही अफजल साहब का मुरीद हुआ जा सकता है...एक-एक पंक्ती कितनी सफाई से, बिना किसी लाग-लपेट के उन वजहों का खुलासा करती है जो असंख्य ’मिट्टी की कान के मज़दू्रों’ को लगभग गुलाम बना कर रखती हैं..उस व्यक्ती की पीड़ा ’जिसने अपना दरिया बेचकर
    एक पुल खरीदा था’ और अंतत: जिसे ’नौकरी मिट्टी की कान में मिली’ बड़ी शिद्दत से महसूस की जा सकती है...
    इस शानदार कविता को यहाँ उपलब्द्ध कराने के लिये आपका हृदय से आभार.

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  2. मिट्टी की कान से मिट्टी चुराऊंगा और एक दिन अपनी मर्जी का एक पूरा आदमी बनाऊंगा .....बहुत-बहुत अच्छी कविता.......!!

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