राबर्टो जुअर्रोज़ की एक और कविता...
किधर ढल जाता है पतझड़? : राबर्टो जुअर्रोज़
(अनुवाद : मनोज पटेल)
किधर ढल जाता है पतझड़?
क्या ढूँढ़ता है वह चीजों के नीचे?
वह क्यों झाड़ देता है सारे रंगों को
मानो जरूरी हो रंग उड़ना सारी गिरने वाली चीजों का?
और किधर ढल जाते हैं हम सब
छोटे वहनीय पतझड़ों की तरह?
किधर गिरते जाते हैं हम
पतझड़ ख़त्म हो जाने के बाद भी?
कौन सा अस्त-व्यस्त प्रकाश
खोखला कर देता है हमारी बुनियादों को, या हटा देता है उन्हें?
या बुनियादें नहीं होतीं ज़िंदगी की
और केवल शून्य में तैरता है प्रकाश?
पतझड़ हमें खींचता है उस गहराई की तरफ
जिसका अस्तित्व ही नहीं है.
और उस दौरान
हम देखते रहते हैं ऎसी ऊंचाई की ओर
जो और भी कम होती है अस्तित्व में.
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Manoj Patel Blogger & Translator
गहराई जो है ही नहीं, और ऊंचाई जो और भी कम होती है अस्तित्व में, खूबसूरत भाव-भंगिमा है. पतझड़ का रूपक जिंदगी के साथ कितना सटीक बैठता है !
ReplyDeleteऊँचाई और गहराई के बीच कितने ही भ्रम... कितना उपक्रम और तहों में कितना कुछ सहेजे हुए कविता!
ReplyDeleteपढ़ते पढ़ते का कोटिशः आभार इन सुन्दर कृत्यों को हम तक पहुँचाने के लिए!!!
Read and re-read many posts today in padhte padhte...
Thanks for providing me with the opportunity of such rewarding experience!
behad sundar kavita...umda anuvaad
ReplyDeleteप्रकृति के साथ जिंदगी का सुंदर समन्वय.......बेहतरीन कविता..!!
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