चार्ल्स सिमिक की कुछ कविताएँ आप इस ब्लॉग पर पहले भी पढ़ चुके हैं, आज प्रस्तुत है एक और कविता...
स्मृति की छोटी पिनें : चार्ल्स सिमिक
(अनुवाद : मनोज पटेल)
एक दूकान की धूल से अटी खिड़की में
एक पुतले पर पिनों की मदद से पहनाया हुआ था
इतवार को पहनकर घूमने लायक बच्चे का एक सूट.
वर्षों से बंद लग रही थी दूकान.
एक बार मैं अपना रास्ता भूल गया था वहां
इतवार की तरह की एक खामोशी में,
इतवार जैसी ही दोपहर की रोशनी थी
लाल ईंट वाले मकानों की सड़क पर.
कैसा लगा तुम्हें वह?
मैनें यूं ही कहा.
कैसा लगा तुम्हें वह?
आज फिर मैं यह बोला नींद खुलते ही.
अनन्त तक चली जा रही थी वह सड़क
और रास्ते भर मैं महसूस करता रहा पिनों को
अपनी पीठ पर चुभते हुए
मोटे चटक कपड़े के आर-पार.
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Manoj Patel
स्मृतियाँ... साथ नहीं छोड़तीं कभी... या यूँ कहें स्मृतियों के चक्रव्यूह से हम आजीवन निकल नहीं पाते... और अनंत तक की यात्रा पूरी हो जाती है... अंत के साथ...; संसार में अंत होना तो इहलीला की समाप्ति ही है न... और फिर इस अंत के बाद छोड़ जाते हैं स्मृतियाँ हम... औरों के लिए... जो चुभे उन्हें पिन की तरह ताउम्र! स्मृति की छोटी पिनें कई स्मृतियाँ को उगेढ़ गयीं...!
ReplyDeleteसुन्दर अनुवाद!
बहुत सुन्दर!
ReplyDeleteस्मृतियों की पिने चुभती ही रहती हैं.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर अनुवाद.
और महसूस करता रहा पिनों को अपनी पीठ में चुभते हुए ......वहुत ही अच्छी कविता .....!!
ReplyDeleteनिर्जीव में सजीव...
ReplyDeleteस्मृतियों की पिनों का चुभना बाल-मन की गहराइयों को नापने वाला रूपक है.
ReplyDeleteअदभूत् अदभूत् अदभूत्...
ReplyDeleteबेहतरीन अनुवाद ..
ReplyDeleteवाह...बेहतरीन कविता और लाजवाब अनुवाद..
ReplyDeleteशुक्रिया.