Wednesday, November 2, 2011

टॉमस ट्रांसट्रोमर : विस्मृति के नर्क में

टॉमस ट्रांसट्रोमर की एक गद्य कविता...














नाम : टॉमस ट्रांसट्रोमर 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

कार के सफ़र के दौरान मैं ऊंघने लगता हूँ और उसे सड़क के किनारे पेड़ों के नीचे ले जाकर खड़ी कर देता हूँ. फिर पिछली सीट पर जाकर मैं गुच्छा-मुच्छा होकर सो जाता हूँ. कितनी देर तक? घंटों. अंधेरा घिर आता है. 

अचानक मैं जाग जाता हूँ और जान नहीं पाता कि मैं कहाँ हूँ. पूरी तरह से जाग जाता हूँ मगर इससे भी कोई फायदा नहीं होता. मैं कहाँ हूँ? कौन हूँ? मैं कोई चीज भर हूँ जो पिछली सीट पर जाग गई है और घबराहट में कसमसा रही है जैसे बोरे में बंद कोई बिल्ली. मैं कौन हूँ?

आखिरकार मेरे प्राण वापस आ जाते हैं. मेरा नाम किसी देवदूत की तरह प्रकट होता है. दीवारों के बाहर तुरही का एक संकेत बजता है (लिओनोरा ओपेरा की शुरूआत की तरह) और लम्बी सीढ़ियों पर होशियारी से उतरते राहत दिलाने वाले क़दमों की आवाज़ सुनाई देती है. यह मैं हूँ! मैं हूँ!

मगर मुख्य सड़क से कुछ मीटरों की दूरी पर जहां बत्तियां जलाए हुए गाड़ियां तेजी से गुजर रही हैं, विस्मृति के नर्क में गुजरे उन पंद्रह सेकेंडों के संघर्ष को भुला पाना नामुमकिन है.
                                                     :: :: :: 
  Manoj Patel Translations, Manoj Patel's Blog  तोमास त्रांसत्रोमर की कविताएँ   

4 comments:

  1. मैं, मैं नहीं हूं, कोई और हूं या फिर मैं कौन हूं -एक ऐसा आत्म संघर्ष है जो सो कर उठने पर ही नहीं, कभी भी बहुत यंत्रणा देने वाला हो सकता है. विभ्रम / विस्मृति की स्थिति कितनी ही देर चले, उसे भुला पाना कोई आसान काम नहीं. अपने ऐसे एकांतिक क्षणों से जुड़े अनुभवों को कविता में ढाल कर सार्वजानिक करने के लिए भी बड़ी कुव्वत की दरकार होती है.

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  2. "nrk me gujre un pndrh second ke sanghrshon ko bhula pana namumkin hai..."

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  3. बहुत बढि़या ।

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