Wednesday, November 9, 2011

रॉबर्ट ब्लाय : चाँद का घर

रॉबर्ट ब्लाय की एक कविता... 










चाँद : रॉबर्ट ब्लाय 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

पूरा दिन कविताएँ लिखने के बाद 
मैं निकल जाता हूँ चीड़ के पेड़ों के बीच चाँद देखने के लिए 
दूर जंगल में बैठता हूँ चीड़ के एक पेड़ से टिककर 
अपनी ड्योढ़ी उजाले की तरफ कर रखी है चाँद ने 
मगर अँधेरे में है उसके घर के भीतर का हिस्सा 
                    :: :: :: 
Manoj Patel 

6 comments:

  1. इस छोटी सी कविता में मानवीय मन की खुशी और वेदना एक साथ दिखाई देती है, अकेलापन किस कदर किसी के साथ भी कर देता है और उसी समय तन्हा भी.
    मनोज जी, आप की चयनित और अनूदित कविताएँ गंभीर और गहरे अर्थ से युक्त होती हैं, अच्छी कविताएँ हम तक पहुँचाने का आभार.

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  2. मगर अंधेरे में है उसके घर का भीतर का हिस्सा, पर चूंकि ड्योडी उजाले कि तरफ़ है, आने वालों को तो कोई कठिनाई नहीं ही होगी.

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  3. how beautifully the poet portrays his own feelings through personification of moon!

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