दून्या मिखाईल की डायरी का एक और अंश...
समुद्र से बिछड़ी एक लहर की डायरी - ४ : दून्या मिखाइल
(अनुवाद : मनोज पटेल)
एक सर्द सुबह, मुझे पता था कि आज मरना है मुझे.
इसलिए खुद को पूरी तरह तैयार कर लिया मैनें मरने के लिए.
पूरी की अपनी आखिरी कविता
और बंदोबस्त कर लिया अपने ताबूत का
और फूल खरीदे अपनी कब्र पर रखे जाने के लिए.
मृत्यु और मैं --
फूल पसंद हैं हम दोनों को ही.
मैंने पूछा खुद से,
"कुछ भूल तो नहीं गई मैं मरने से पहले?"
याद आया कि शतरंज रखना तो भूल ही गई थी मैं
और डरी भी कि मुझसे नाराज न हो जाए बादशाह इस वजह से.
तो मैनें हर मोहरे को सजा दिया बिसात पर.
अगली सुबह, मैनें भागते देखा मोहरों को सर छुपाने के लिए
और सोचा, "हम क्यों तलाशते हैं सर छुपाने की जगह
जब आसमान साफ़ है एकदम?"
दुबके हुए हम छिप गए एक कोने में
बिना जाने कि हम ठण्ड से काँप रहे हैं
या रासायनिक हथियारों के भय से.
एक सफ़ेद कमरे में, हमारे भीतर की बर्फ
छू गई दिल के अँधेरे से.
हमारे चारो तरफ दीवार उठने लगी धीरे-धीरे
और छत नीचे आने लगी हमारे सरों के ऊपर.
एक-दूसरे में विलीन हो गईं सारी चीजें
और लिपट गईं एक मिसाइल के आकार में
निशाना साधे हुए
रद्दी की टोकरी में बदल चुकी मेरी खोपड़ी का.
और इससे पहले कि मैं माफी मांग पाती मिसाइल से
अपनी खोपड़ी में मौजूद वृहत शून्य के लिए
मेरे दिमाग के पुर्जे उड़ गए जख्मी परिंदों की तरह
और ले गए मेरी स्मृति भी.
परिंदे खड़े रहे एक त्रिभुज में मेरी खोपड़ी पर
किसी कब्र के पत्थर की तरह.
अपने दिल के एक छोटे से कोने में
मैनें छुआ एक लमहे को
जो पूरी एक ज़िंदगी था.
बिजली गिरती रही भीतर और बाहर; फिसलती हुई रेत
फ़ैलती गई एक धड़कन से दूसरी धड़कन के बीच.
-- मगर मुझे नहीं मिला तुम्हारे क़दमों का कोई निशान.
-- क्या तुम भूल गए कि उठाकर ले जाना था मुझे?
:: :: ::
आह!!!!
ReplyDeleteबेहद मार्मिक.....
एक खाका खिंच गया दिमाग में...कैसे होती है मरने की तैयारी...
क्या शुरुआत है! शायद ही कोई पाठक इन पंक्तियों के लिए तैयार कर सकता हो, अपने आपको. अद्भुत कविता है, अपनी पूरी बनावट और बुनावट में! एक-एक पंक्ति लाजवाब! और क्या अंत है!
ReplyDeleteसच! कभी कभी एक लम्हा ही पूरी ज़िन्दगी होता है...
ReplyDeleteबेहद सुन्दर कविता हर शब्द हर पंक्ति पर आश्चर्यचकित करती सी!
waah...marm bhedi vichaar..Manoj..kripaya Rasool hamzatov ki kavitaayon se mulakaat karvaaiye..shukriya..
ReplyDeleteआज आपके ब्लॉग पर बहुत दिनों बाद आना हुआ. अल्प कालीन व्यस्तता के चलते मैं चाह कर भी आपकी रचनाएँ नहीं पढ़ पाया. व्यस्तता अभी बनी हुई है लेकिन मात्रा कम हो गयी है...:-)
ReplyDeleteबेहतरीन चित्र के साथ उत्कृष्ट रचना पढने को मिली...बधाई स्वीकारें
नीरज
एक भव्य और उदात्त मृत्यु की यद् दिलाने वाली कविता.
ReplyDeleteभगत सिंह ने भी मरने की ऐसी ही तैय्यारी की थी, सहज, उद्दाम और जिन्दगी से भरपूर.
'राज्य और क्रांति' कवः पन्ना जहाँ तक पढ़ लिया था वहीँ मोड़ कर किताब रखी और चल पड़े थे मौत को गले लगाने.
बहुत अच्छी और मार्मिक कविता है आपके अनुबाद स्वाभाविक है आपका काम मह्त्व का है
ReplyDeleteइसे एक किताब का रूप दिया जा सकता है ताकि यह और लोगो तक पहुचे
सकविताओ से होकर हम अनुभव के नये संसार मे दाखिल होते हैं