मार्क स्ट्रैंड की एक कविता...
सितम्बर की रोशनी में साफ़-साफ़ : मार्क स्ट्रैंड
(अनुवाद : मनोज पटेल)
पेड़ के नीचे खड़ा एक आदमी एक छोटे से मकान को देख रहा है जो बहुत दूर नहीं है. वह अपने दोनों हाथों को यूं फड़फड़ा रहा है जैसे वह कोई चिड़िया हो, शायद किसी ऐसे शख्स को कोई इशारा करता हुआ जिसे हम नहीं देख पा रहे हैं. वह चिल्लाता भी हो सकता है मगर चूंकि हमें कुछ सुनाई नहीं दे रहा तो शायद ऐसा न हो. ठीक तभी हवा पेड़ में एक सिहरन पैदा करती है और घास को औंधा कर देती है. वह आदमी घुटनों के बल बैठ जाता है और जमीन पर मुक्के बरसाने लगता है. एक कुत्ता आकर उसके बगल में बैठ जाता है. वह आदमी खड़ा हो जाता है और एक बार फिर अपने दोनों हाथों को फड़फड़ाना शुरू कर देता है. वह जो कर रहा है उसका मुझसे कोई लेना-देना नहीं है. उसकी हताशा मेरी हताशा नहीं है. मैं पेड़ों के नीचे खड़े होकर छोटे मकानों को नहीं देखा करता. मेरे पास कोई कुत्ता नहीं है.
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this is a sort of abstract writing...hard to understand without an explanation....
ReplyDeleteइस सार्थक पोस्ट के लिए बधाई स्वीकार करें.
ReplyDeleteकृपया मेरे ब्लॉग"meri kavitayen" पर पधार कर अपनी राय प्रदान करें.
bahut khub .
ReplyDeleteज्ञान और तथ्य परक पोस्ट //
Deleteउसकी हताशा मेरी हताशा नहीं है
'वह जो कर रहा है उसका मुझसे कोई लेना-देना नहीं है !'
ReplyDeleteकविता एक त्रासदी की ओर संकेत कर रही है जो सामाजिक विघटन को लेकर है ,जिसमें किसी को किसी से कोई सरोकार नहीं रह गया है !
बढ़िया कविता मनोज जी ,सुलभ करने के लिए आभार !