Friday, March 23, 2012

सिनान अन्तून की डायरी से


इराकी कवि, कथाकार एवं फिलहाल न्यूयार्क यूनिवर्सिटी में अध्यापन कर रहे सिनान अन्तून की कविताएँ आप इस ब्लॉग पर पहले पढ़ चुके हैं. आज प्रस्तुत है युद्ध के दौरान लिखी गई उनकी डायरी का एक अंश...  
[Academy of Fine Arts, Baghdad, 2003. Image from InCounter Productions]
बग़दाद वाल, एकेडमी आफ फाइन आर्ट्स बग़दाद २००३  

 









रोम में एक बर्बर : सिनान अन्तून 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

"मैनें लाखों लोगों को बर्बरता से निजात दिलवाई है." 
                                                          - जार्ज डब्लू. बुश, द गार्जियन, रविवार १५ जून २००८ 

"क्या तुम छुट्टियों में घर जा रहे हो?" कुछ साल पहले मेरे एक सहकर्मी ने लिफ्ट में मुझसे यह सवाल किया था. यह एक आम और जायज सवाल है मगर यदि आप मेरी तरह बग़दाद के हों तो कोई जवाब देना इतना आसान नहीं होगा. फ़ौरन जो जवाब सूझा था वह यह था: "क्या तुमने पिछले चार साल की ख़बरों पर गौर किया है?" मगर मैं इतना थका हुआ हूँ कि उसके बाद होने वाली बातचीत में फंसना नहीं चाहता और न ही एक अजीब सी स्थिति में क्षणिक अपराध के असर का साक्षी बनना चाहता हूँ. मुझे अपने सहकर्मी को बस माफ़ कर देना चाहिए. 

रोम में ऐसा ही है. अधिकतर लोगों के लिए दूरवर्ती देशों में बर्बरों के खिलाफ लड़े जा रहे युद्ध की ख़बरें ज्यादा से ज्यादा एक मनबहलाव ही हैं. यहाँ तक कि सम्राट ने भी अभी हाल ही में 'ईराक ऊब' की बात की. हाँ, कुछ बड़बड़ाहट है, कुछ बहसें और ऎसी ही चीजें, मगर...   

मैं वापस न जाने की चाहे जितनी कोशिश कर लूं मगर मुझे हर रोज लौटना पड़ता है, लेकिन किसी वास्तविक जगह पर नहीं. वह खानदानी घर जिसमें मैं पैदा हुआ था पांच साल पहले बेच दिया गया. बग़दाद में रह गईं मेरे परिवार की आखिरी सदस्य, मेरी आंटी, जार्डन के अम्मान चली गईं क्योंकि ७२ साल की एक बुजुर्ग महिला के लिए विस्फोटों के बीच रहना नामुमकिन हो गया था.  

इसलिए मैं ग्राउंड फ्लोर पर उससे विदा लेते हुए जवाब देता हूँ: 
-- दरअसल मैं घर नहीं जा रहा. इतनी सारी डेडलाइंस! 
-- हैव अ नाईस ब्रेक! 
-- यू टू. 

"डेडलाइन : २  पुराने जमाने में जेल की वह सीमारेखा जिसका उल्लंघन कैदियों के लिए वर्जित था अन्यथा उन्हें मौत की सजा दी जाती थी.      

ईराक वेबसाइटों पर बिखरा पड़ा है. एक स्त्री उस ताड़ के पेड़ के बारे में लिखती है जिसे उसने अपने छोटे से बगीचे में रोपा था और वह कैसे उसे देखने हर शाम वापस जाती है... गूगल अर्थ पर. कुछ महाद्वीपों की दूरी पर बैठी वह, उसे सिर्फ अपने आंसुओं से ही सींच सकती है. 

बर्बरों का ब्रह्माण्ड टुकड़ों-टुकड़ों में होता है. वह कतरनें और तस्वीरें जमा किया करता है: 

छः या सात साल की एक छोटी बच्ची अपने पिता की उंगली पकड़े एक सूनी सड़क को पार कर रही है. वे बीच के डिवाईडर पर पहुँचने वाले हैं जिसपर कुछ घास-फूस और कूड़ा-करकट मौजूद है. सड़क के उस पार, झुलस कर काली हुई एक गाड़ी इंतज़ार कर रही है. लड़की के पास लाल रंग का एक छोटा सा पिठ्ठूबैग है. तस्वीर के दाएं तरफ कोने में एक फूली हुई लाश पड़ी है. 

कितने साल, कितने दशक लगेंगे उस लड़की को सड़क पार करने में?    
                                                   :: :: ::

4 comments:

  1. बर्बरता के बीच मानवीयता को अभिव्यक्ति देने वाली रचनाएं. मुश्किल होता है ऐसी अमानवीय परिस्थितियों में इतने संयत ढंग से, और इतने सृजनात्मक ढंग से, अपनी बात कह पाना.

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  2. दर्दभरी दास्तान ,बर्बरता के शिकार हुए देश ,समाज और मनुष्यता की ! मार्मिक !! मनोज जी ,आभार इस संवेदना से जोड़ने के लिए !

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  3. समय की बर्बरता और संवेदनाओं की झलक लिए मार्मिक पन्ने डायरी के...!
    आभार!

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