चेस्लाव मिलोष की एक और कविता...
नदियाँ छोटी होती जाती हैं : चेस्लाव मिलोश
(अनुवाद : मनोज पटेल)
नदियाँ छोटी होती जाती हैं. शहर छोटे होते जाते हैं. और शानदार बगीचे
हमें वह दिखाते हैं जो हमने पहले नहीं देखा था: मुड़ी-तुड़ी पत्तियाँ और धूल.
जब पहली बार मैं तैरा था झील के आर-पार
तो बहुत बड़ी लगी थी वह मुझे, यदि इन दिनों गया होता मैं वहां
तो हजामत वाले कटोरे जैसी लगती वह मुझे
उत्तर-हिमकालीन चट्टानों और हपुषा के पेड़ों के बीच.
हलीना गाँव के पास का जंगल कभी आदिम लगता था मुझे
पिछले, मगर हाल ही में मारे गए भालू की गंध से युक्त,
अलबत्ता एक जुता हुआ खेत नजर आता था चीड़ के पेड़ों के बीच से.
जो अलग था वह आम ढंग की एक किस्म बन जाता है.
मेरी नींद तक में चेतना बदल लेती है अपने प्राथमिक रंगों को.
मेरे चेहरे के नाक-नक्श पिघल जाते हैं जैसे आग में कोई गुड़िया मोम की.
और कौन राजी हो सकता है आईने में महज आदमी का चेहरा देखने के लिए?
बर्कले, १९६३
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hi Manoj..please..Rasool Hamzatov ki kavitaayon ka anuvaad bhi kijiye...unka 'Mera Daagistan' padh ke lagta hai ki wo aapke bolg par bhi hone chaahiye..
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