Monday, March 5, 2012

चेस्लाव मिलोश : चाहिए, नहीं चाहिए

चेस्लाव मिलोश की एक कविता...

 

चाहिए, नहीं चाहिए : चेस्लाव मिलोश 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

एक आदमी को प्रेम नहीं करना चाहिए चन्द्रमा से.
उसके हाथों में वजन कम नहीं होना चाहिए एक कुल्हाड़ी का. 
सड़ रहे सेबों की बदबू आनी चाहिए उसके बगीचे से 
और उसे अच्छी संख्या में उगानी चाहिए बिच्छू-बूटियाँ 
बातें करते समय एक आदमी को नहीं इस्तेमाल करने चाहिए ऐसे शब्द 
जो प्रिय हों उसे,
न ही फोड़ के देखना चाहिए एक बीज को कि क्या है इसके भीतर. 
उसे गिराना नहीं चाहिए रोटी का कोई टुकड़ा,
या थूकना नहीं चाहिए आग में 
(लिथुआनिया में तो मुझे यही सिखाया गया था).
जब वह कदम रखे संगमरमर की सीढ़ियों पर, 
किनारे से चिप्पी उतारने की कोशिश करनी चाहिए 
उस जाहिल को अपने जूते से 
यह याद दिलाने की खातिर कि हमेशा नहीं रहनी हैं सीढ़ियाँ. 
                                                                       बर्कले, १९६१ 
                    :: :: ::
Manoj Patel, चेस्वाव मिवोश 

6 comments:

  1. क्या बात है ...............इतनी अच्छी कवितायेँ पढ़ कर दंग रह जाता हूँ ! आभार मनोज जी ,सुन्दर अनुवाद किया आपने !

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  2. रिश्तों की गहराई का अहसास भी तो तभी ही होता है, जब आप किसी के भीतर तक उतर जाएं, जहाँ कोई आवरण न हो...
    नायाब कविता है भाई और तिस पर आपका सृजनधर्मा अनुवाद...
    शुक्रिया इस अनमोल नगीने के लिए...

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  3. बहुत गहरी कविता !

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  4. '....हमेशा नहीं रहनी हैं सीढियां.'
    वाह!

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  5. "न ही फोड़ के देखना चाहिए एक बीज को कि क्या है इसके भीतर", असल मर्म तो यहां छिपा है. आभार, मनोज, द ग्रेट.

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  6. पढा! सूक्तियों सी कविता!

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