अफ़ज़ाल अहमद सैयद की एक और कविता...
मैं डरता हूँ : अफ़ज़ाल अहमद सैयद
(लिप्यंतरण : मनोज पटेल)
मैं डरता हूँ
अपने पास की चीज़ों को
छूकर शायरी बना देने से
रोटी को मैंने छुवा
और भूख शायरी बन गई
उंगली चाक़ू से कट गई
और ख़ून शायरी बन गया
गिलास हाथ से गिरकर टूट गया
और बहुत सी नज़्में बन गईं
मैं डरता हूँ
अपने से थोड़ी दूर की चीज़ों को
देखकर शायरी बना देने से
दरख़्त को मैंने देखा
और छाँव शायरी बन गई
छत से मैंने झाँका
और सीढ़ियाँ शायरी बन गईं
इबादतख़ाने पर मैंने निगाह डाली
और ख़ुदा शायरी बन गया
मैं डरता हूँ
अपने से दूर की चीज़ों को
सोचकर शायरी बना देने से
मैं डरता हूँ
तुम्हें सोचकर
देखकर
छूकर
शायरी बना देने से
:: :: ::
बेहतरीन मित्र...
ReplyDeleteशायराना फितरत........... इसीलिए कवि को सृष्टा कहा जाता है !
ReplyDeleteबहुत अच्छी कविता ! आभार मनोज जी !
Kya baat hai, ye dar itna bada kyon hai ye ant me pata chala, achhi kavita
ReplyDeleteवाह................
ReplyDeleteलाजवाब.............
मैं डरता हूं कुछ पढकर
ReplyDeleteलिखने से
टिप्पणी लिखा और शायरी बन गई!
बहुत सुंदर...हर शै में तू ही तू है
ReplyDeleteयूनानी राजा मिदास की याद आई... ... सोना बनने वाली...
ReplyDeleteबड़ा वाजिब डर है कवि का, इसलिए वह आखिर तक पहुंचते-पहुंचते रुक जाता है. मिदास का लालच बड़ा था, इसलिए वह बिना सोचे-समझे सब कुछ को छूता चला गया. यह फ़र्क़ क़ाबिले गौर है.
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