ऊलाव एच. हाउगे की एक और कविता...
एक बर्फीली चोटी के पीछे
सूरज ढांप लेता है अपनी आँखें.
थर्मामीटर का पारा
सरकता जाता है नीचे, और
नीचे --
इंसान की गर्माहट
सिकुड़ जाती है
एक
छोटे से खोखल में.
मैं बचा के खर्च करता हूँ जलाऊ लकड़ी
सर्द दिन : ऊलाव एच. हाउगे
(अनुवाद : मनोज पटेल)
सूरज ढांप लेता है अपनी आँखें.
थर्मामीटर का पारा
सरकता जाता है नीचे, और
नीचे --
इंसान की गर्माहट
सिकुड़ जाती है
एक
छोटे से खोखल में.
मैं बचा के खर्च करता हूँ जलाऊ लकड़ी
संक्षिप्त रखता हूँ कविता.
:: :: ::
............... ताकि बचाए रख सकूँ बदन की गर्माहट ,अगले सूर्योदय तक !
ReplyDeleteबहुत अच्छी कविता और अनुवाद ! बधाई मनोज जी !
Lajawab...Sharing ka shukriya
ReplyDeleteबहुत खूब , बधाई.
ReplyDeleteकृपया मेरे ब्लॉग"meri kavitayen" की १५० वीं पोस्ट पर पधारें और अब तक मेरी काव्य यात्रा पर अपनी राय दें, आभारी होऊंगा .
एक दम मेरा अनुभव !
ReplyDeleteवाह.................
ReplyDeleteबहुत बढ़िया.
शुक्रिया.
बहुत सुंदर...
ReplyDeleteअद्भुत!
ReplyDeleteसिकुड़ रही गर्माहट के बीच संवेदनाओं का संचयन एवं शब्दों के परिपेक्ष्य में मितव्ययी होते हुए तथ्य उद्घाटित करती कविता!
suder
ReplyDeleteजलाऊ लकड़ी और कविता.....!! कितना सुंदर इडियम....!!
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