Friday, April 20, 2012

ऊलाव एच. हाउगे : सर्द दिन

ऊलाव एच. हाउगे की एक और कविता... 

 
सर्द दिन : ऊलाव एच. हाउगे 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

एक बर्फीली चोटी के पीछे 
सूरज ढांप लेता है अपनी आँखें. 
थर्मामीटर का पारा 
सरकता जाता है नीचे, और 
नीचे -- 
इंसान की गर्माहट 
सिकुड़ जाती है 
एक 
छोटे से खोखल में. 
मैं बचा के खर्च करता हूँ जलाऊ लकड़ी 
संक्षिप्त रखता हूँ कविता. 
                    :: :: ::  

9 comments:

  1. ............... ताकि बचाए रख सकूँ बदन की गर्माहट ,अगले सूर्योदय तक !

    बहुत अच्छी कविता और अनुवाद ! बधाई मनोज जी !

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  2. बहुत खूब , बधाई.
    कृपया मेरे ब्लॉग"meri kavitayen" की १५० वीं पोस्ट पर पधारें और अब तक मेरी काव्य यात्रा पर अपनी राय दें, आभारी होऊंगा .

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  3. एक दम मेरा अनुभव !

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  4. वाह.................

    बहुत बढ़िया.
    शुक्रिया.

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  5. बहुत सुंदर...

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  6. अद्भुत!
    सिकुड़ रही गर्माहट के बीच संवेदनाओं का संचयन एवं शब्दों के परिपेक्ष्य में मितव्ययी होते हुए तथ्य उद्घाटित करती कविता!

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  7. जलाऊ लकड़ी और कविता.....!! कितना सुंदर इडियम....!!

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