आज प्रस्तुत है कवि-कथाकार विमल चन्द्र पाण्डेय की कहानी 'खून भरी मांग'. इन दिनों लमही के कहानी विशेषांक में प्रकाशित विमल की कहानी "उत्तर प्रदेश की खिड़की" अपने अनूठे शिल्प, कथ्य और काव्यात्मक भाषा के चलते चर्चा में है. भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित उनके कहानी-संग्रह 'डर' को ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार प्राप्त हो चुका है.
खून भरी मांग : विमल चन्द्र पाण्डेय
उनकी आंखों में जो मुझे दिखायी देता था वह फिर मुझे कभी और कहीं नहीं दिखा। उसकी परिभाषा देना मुश्किल है लेकिन उन्हें समझना कतई मुश्किल नहीं था। चीज़ें दिमाग में इतनी स्पष्ट नहीं हैं और मुझे शुरुआत का इतना याद आता है कि इस दुनिया को मैंने उनकी ही नीली आंखों से देखना शुरू किया था। वह हमेशा मुझे अपने पुराने दिनों में बैठी दिखायी देती थीं, जहां मैं हाफ पैण्ट पहने उनके पीछे-पीछे घूम रहा होंउ और वह मुझे ढेर सारी कहानियों में गुमा दे रही हों। हम उन्हें किरन बुआ कहते थे और जीतेंद्र उनका पसंदीदा हीरो था, यह बात पूरे मुहल्ले पर उसी तरह ज़ाहिर थी जिस तरह यह ज़ाहिर था कि मुझे स्कूल जाना एकदम नहीं पसंद। मुझे उस मासूम उम्र में एक अंधेरे हॉल में सैकड़ों जगमगाती रोशनियों के बीच सबसे पहली बार वही लेकर गयी थीं। सभी लोग दम साधे किसी एक चीज़ का इंतज़ार कर रहे थे तो मैं भी करने लगा। वह मेरी उंगली थामे अंदर जाकर दाहिने मुड़ी थीं और एक सीट पर बैठ गयी थीं। मैं उनकी बगल वाली सीट पर बैठा था कि अचानक सामने के परदे पर रंगों के इंद्रधनुष उतर आये। जो संगीत बज रहा था उसकी झनकार मुझे उन रंगों के रथ पर बिठा कर दूसरी दुनिया में ले जा रही थी। मैं सिनेमा हॉल में बैठकर अपनी ज़िंदगी की पहली फिल्म देख रहा था। फिल्म का नाम `आखिरी रास्ता´।
किरन बुआ का घर हम लोगों के घर के ठीक बगल में था। उनके पिता जी नहीं थे और मां व भाई मिलकर घर चलाते थे। भाई अंडे का ठेला लगाता था और दोपहर से ही उनकी मां एक बड़े परात में प्याज़ काटना शुरू देती थीं। शाम होने पर उनका भाई अंडे के ठेले पर अंडों की ट्रे सजाता और नदेसर चौराहे की तरफ निकल जाता। उनकी मां का पसंदीदा काम औरतों से बातें करना और अपने रिश्तेदारों को कोसना था। किरण बुआ की उम्र उस समय 17 या 18 रही होगी। मैं दूसरी क्लास में पढ़ता था और किरण बुआ के सबसे करीब था।
फिल्में उनकी जान थीं। वह हमारे घर से अक्सर अचार मांग कर ले जाती थीं और कहती थीं कि उनकी मां को नहीं पता चलना चाहिये नहीं तो वह बहुत मार खायेंगीं।
हमारे घर वाली सड़क के दूसरी तरफ यानि सड़क पार करने पर फिलमिस्तान टॉकीज़ था जिसमें किरण बुआ नियमित रूप से फिल्में देखने जाती थीं। कोई भी नयी फिल्म लगने पर उस दिन बहुत भीड़ होती थी इसलिये बुआ अक्सर शुक्रवार को लगी फिल्म को देखने के लिये सोमवार या मंगलवार का दिन चुनती थीं। मैं हमेशा उनके साथ होता था। मैं एक छोटा बच्चा था और छोटे बच्चे इस बात की अघोषित गारंटी लेते थे कि उनके होते कोई अनैतिक कार्य नहीं किया जा सकेगा। पहली बार के बाद मैंने किरण बुआ के साथ हर हफ्ते एक के हिसाब से एक साल में इतनी फि़ल्में देख लीं कि मेरे दोस्त मुझसे ईर्ष्या करने लगे। कटिंग मेमोरियल के उस बड़े से मैदान में जब आधी छुट्टी में सभी दोस्त पकड़ा-पकड़ी और विषअमृत खेलते, मैं चार-पांच लड़के लड़कियों से घिरा किसी नयी फिल्म की कहानी सुना रहा होगा। फि़ल्मों की कहानियां सुनाने की कला मैंने उनसे ही सीखी थी। फिल्में देखना उनका नशा है, ये बात मुहल्ले में सबको पता थी और इससे किसी को ऐतराज़ नहीं था। यह ऐसा समय था जब लोगों को कम ऐतराज़ हुआ करते थे और दिलों में प्यार ज़्यादा हुआ करता था।
मैं धीरे-धीरे उनका राज़दार और साथी बन गया था। `खुदगर्ज´ देखते वक्त जब वह मुझे बिठा कर कुछ देर के लिये गायब हुयीं तो मुझे लगा कि वह बाथरुम गयी होंगीं लेकिन जब वह पंद्रह बीस मिनट बाद आयीं तो थोड़ी घबरायी और अस्त व्यस्त सी लगीं। फिर इसके बाद यह नियम ही हो गया। वह हर फिल्म में मुझे बैठा रहने को कह गायब हो जातीं। उनके जाने और आने के बीच का अंतराल बढ़ता गया। पहले वह पंद्रह बीस मिनटों में वापस आ जाती थीं,फिर एक-एक घंटे तक गायब रहने लगीं। मैं कुछ पूछता तो उदास हो जातीं। जब ऐसा उन्होंने जीतेंद्र और रेखा की एक फिल्म में किया तो मुझे कुछ शक सा हुआ। जीतेंद्र उनका आराध्य था और रेखा उनके लिये धरती पर किसी चमत्कार जैसी थी। उनकी ज़िंदगी की सबसे बड़ी इच्छा थी कि जीतेंद्र और रेखा शादी कर लें। मैं उनके उठने के दस मिनट बाद उठा और बाथरुम के पास चला गया। मुझे बाथरुम के पीछे वाली दीवार से कुछ आवाज़ आयी तो मैं उधर ही चला गया। मैंने देखा हमारे मुहल्ले का हसन, जो हॉल में टिकट चेक करता था, किरण बुआ को दीवार पर लगाये उनके होंठों को चूम रहा है। किरण बुआ उसका सिर सहला रही थीं। थोड़ी देर बाद किरन बुआ ने उसे पीछे धकेला तो वह हंसने लगा।
``कहां जाएंगे....?´´ किरन बुआ ने पूछा था।
``कहीं भी....जहां भी सिनेमाहॉल होगा हमारी नौकरी लग जायेगी। जितना पैसा मिलेगा उतने में हम खाना खा लेंगे और तुम पिक्चर देख लोगी।´´ हसन ने बुआ का हाथ पकड़ते हुये कहा। बुआ ने उसकी हथेलियों को अपने चेहरे से सटाते हुये कहा।
``कितना अच्छा लगता है न...? हमको खाना तीन-चार दिन पे भी मिले तो हम काम चला लेंगे बस तुम नौकरी यही करना कि हम लोग खूब पिक्चर देख सकें।´´
हसन ने उन्हें बांहों में भर लिया था और यही पल था जब उसकी नज़र मुझ पर पड़ी। वह झटके से बुआ को अलग हो गया। ``राजू....चलो पिक्चर देखो यार´´ उसने मुझसे कहा। बुआ की नज़र मुझसे मिली और वह चुपचाप हॉल में घुस गयीं। मुझे अचानक लगा कि मैं बहुत बड़ा हो गया हूं और एकदम अवांछित भी। उसी पल मेरे मन ने तमन्ना की कि मुझे कभी बड़ा नहीं होना है। क्या फायदा ऐसा बड़ा होने का कि लोग आपसे डर जायं ? मैं बुआ को खुश देख कर खुश था लेकिन मुझे देखकर उनके चेहरे पर जो डर उभरा था उसने फिल्म देखने का मेरा पूरा मज़ा किरकिरा कर दिया।
रास्ते भर बुआ ने मुझसे कोई बात नहीं की। लौटते वक्त हम फिल्मों के नशे में लौटते थे और गाने और कलाकारों की तारीफें करते हुये घर पहुंचते थे लेकिन उस दिन हम दोनों खामोश रहे। मुझे रात भर नींद नहीं आयी और डर सताता रहा कि अब बुआ मेरे बिना फिल्में देखने चली जाया करेंगी तो मेरा क्या होगा।
अगले दिन बुआ ने मुझे नीचे मैदान से खेलते हुये बुलाया और कहा कि वह उस लड़के से प्यार करती हैं जैसे जीतेंद्र रेखा से करता है और उससे शादी करने के लिये वह किसी भी हद तक जा सकती हैं। वह फिल्मों के संवादों में बात कर रही थीं और ये सुनना मुझे बहुत अच्छा लग रहा था। मैं खुद को अपनी उम्र से बड़ा महसूस कर रहा था। मैंने उनका हाथ पकड़ कर वादा किया कि मैं किसी को कुछ नहीं बताउंगा और मेरी मदद की जो भी जरूरत पड़ें वो मुझे बेझिझक बताएं। मुझे पता नहीं चला कि मैं भी फिल्मी संवादों में बात करने लगा था।
अगली दो-तीन फिल्में शायद किरन बुआ की ज़िंदगी की सबसे खूबसूरत फिल्में थीं। मुझे हॉल में बिठा कर वह हसन से मिलने चली जातीं और दोनों एक दूसरे को बांहों में भरे किसी कोने में अपने भविष्य के सपने देखते। बुआ हर फिल्म को दो बार देखतीं क्योंकि एक ही बार वह हॉल में पूरे वक्त मौजूद रहतीं।
जिस दिन हम `तमाचा´ देख कर घर लौटे थे उस दिन मुझे दो और किरन बुआ को अनगिनत तमाचे पड़े थे। यह घटना ऐसी थी कि मुझे ज़िंदगी भर के लिये उस फिल्म का नाम और उसकी कहानी याद हो गयी। किसी ने उनके बारे में उनके भाई को पता नहीं क्या बताया था कि अगली सुबह मेरी भी वहां पेशी हुयी।
``हसनवा को जानते हो? देखे हो इसके साथ कभी? पिक्चर में से निकलती है कि नहीं बीच में ये? एक ही पिक्चर दो-दो बार क्यों जाते हो तुम लोग देखने? कितना देर तुम्हारे साथ रहती है ये....?´´ किरन बुआ के भाई के पास अनगिनत सवाल थे। मैंने सबके जवाब में सिर्फ यही कहा कि जो फिल्म मुझे अच्छी लग जाती है उसे दुबारा देखने के लिये मैं ही किरन बुआ से जिद करता हूं और किरन बुआ पूरी फिल्म भर मेरे ही साथ रहती हैं। मेरी बात का विश्वास नहीं किया गया और किरन बुआ ने कुछ कहने के लिये मुंह खोला ही था कि उनके भैया उन्हें लातों से पीटने लगे।
``साली कटुये के चक्कर में इज्जत डुबायेगी हमारी...हरामजादी।´´ किरन बुआ की मां भी अपने बेटे को किरन बुआ को मारने के लिये उकसा रही थीं। मैं रोने लगा और उन्हें रोकने की कोशिश की तो उन्होंने मुझे धक्का दिया जिससे मेरा सिर वहीं रखी लोहे की कुर्सी से टकराया और मैं रोता हुआ घर आ गया। घर आकर मैंने पापा को सब कुछ बताया और किरन बुआ को बचाने को कहा तो उन्होंने मुझे दो तमाचे मारे और कहा कि मैं अपनी खैर चाहता हूं तो उनके घर की ओर देखूं भी नहीं।
इसके बाद सब कुछ बहुत जल्दी-जल्दी हुआ। एक दिन भोर में हसन की लाश फिलमिस्तान के पीछे पायी गयी। पुलिस ने बताया कि हसन को जुआ खेलने की आदत थी और किसी से उधार लेकर उसने जुआ खेला था, उधार वक्त पर चुकता न कर पाने के कारण उसकी हत्या कर दी गयी। उसी महीने के अंत तक किरन बुआ की शादी तय कर दी गयी।
बुआ सिर्फ बालकनी पर कभी-कभी दिखायी देती थीं। उनकी आंखें हमेशा सूजी रहतीं और वह न जाने कहां देखा करती थीं कि बहुत कोशिश के बावजूद मेरी आंखों से उनकी आंखें मिलती ही नहीं।
उनकी शादी में मैं नयी कमीज़ पहन कर गया था और मैंने छह गुलाबजामुन खाये थे। वह विदाई के समय इतना रोयीं कि पूरा मुहल्ला वीरान लगने लगा। डोली में बैठने से पहले वह मेरे गले लग के भी खूब रोयीं।
उनके जाने के बाद मुहल्ला सूना हो गया। मैं स्कूल से आते वक्त नयी नयी फिल्मों के पोस्टर देखता और उन्हें देखने के लिये तड़पता रहता लेकिन मुझे कौन दिखाता फिल्में। पापा से कहता तो वह कहते कि मैं फिल्में समझने लायक हो जाउं तब वह दिखाने ले चलेंगे।
एक दिन मैं स्कूल से लौट कर आ रहा था। रास्ते में लगे `खून भरी मांग´ के पोस्टर जो मुझे एक हफ्ते से परेशान कर रहे थे। मैं किरन बुआ को याद करता आ रहा था कि रेखा की फिल्म उन्होनें मुझे पहले ही दिन दिखा दी होती। फिल्म मारधाड़ वाली लग रही थी और मुझे किरन बुआ की रोमांटिक फिल्मों की तुलना में ऐसी ही ज्यादा पसंद आती थीं। पोस्टर घर लौटते तक मेरे दिमाग में छा चुका था, -राकेश रोशन की प्रस्तुति खून भरी मांग, संगीत राजेश रोशन, गीत इंदीवर। मैं पागलों की तरह सोच रहा था कि कैसे देखूंगा ये फिल्म। मेरे दिमाग में पोस्टर के आधार पर पचासों कहानियां दौड़ रही थीं।
जब मैं घर पहुंचा तो खुशी से मेरी किलकारी फूट पड़ी। किरन बुआ मेरे घर में बैठी मां से बातें कर रही थीं। मैंने अपना बस्ता फेंका और दौड़ कर उनसे लिपट गया। वह मेरे सिर पर हाथ फिराने लगीं।
``कैसे हो राजू ?´´ उनकी आवाज़ सिर्फ दो-ढाई महीनों में ही इतनी बदल गयी थी कि पहचान में नहीं आ रही थी। एकदम टूटी हुयी आवाज़, बिखरी सी जैसे रात भर टपकती ओस में भीग कर नम हो गयी और कहीं कोई धूप न हो। मैं उनसे ज़ोर से लिपट गया। वह जाने लगीं तो मेरी आंखें भर आयीं। उन्होंने मेरा माथा सहलाया, ``आदमी होके रो रहे हो? आदमी बहुत ताकतवर होता है। रोओ मत, शाम को बरामदे में मिलेंगे।´´
बरामदा एक तरह से हमारे मोहल्ले की चौपाल था जहां औरतें और बच्चे शाम को बैठ अपनी-अपनी दुखों की गठरी खोल कर आपस में साझा किया करती थीं।
शाम को जब पापा आ गये और मैंने होमवर्क उन्हें दिखा लिया तो बरामदे में जाने के लिये निकलने लगा। मां ने पापा से कुछ कहा जिसमें मुझे इतना ही समझ में आया कि किरन बुआ के ससुराल वाले बजाज चेतक मांग रहे हैं और उन्हें यहां मारपीट कर वापस यह कह कर भेजा गया है कि वापस तभी आयें जब उनका भाई बजाज चेतक खरीद कर वहां पहुंचा आये। मैं इस बात का मतलब ठीक से नहीं समझा और जितना समझा उसमें मुझे यही लगा कि मार खाना कोई बड़़ी बात नहीं और चेतक खरीद कर जितने दिन नहीं दिया जायेगा उतने दिन मैं किरन बुआ के साथ रह सकूंगा।
जब मैं बरामदे में पहुंचा तो बुआ बैठी एक पत्रिका पढ़ रही थीं। मैंने उन दिनों की अपनी सबसे बड़ी समस्या उनसे साझा की। `खून भरी मांग´ जरूर बहुत शानदार पिक्चर होगी और हमें उसे देखना चाहिये, मैं उनके आने का कैसे भी फायदा उठा लेना चाहता था। वह एक बिना चीनी की मुस्कराहट मुस्करायीं और मेरा हाथ पकड़ कर मुझे अपने पास बिठा लिया।
``मैंने तो देख लिया।´´ मेरा चेहरा बुझ सा गया। उन्होंने मेरी ठुड्डी ऊपर उठाते हुये पूछा, ``कहानी सुनोगे ?´´
``हां हां ....सुनाइये।´´ मैं उत्साहित हो गया। उनसे कहानी सुनना किसी फिल्म देखने से कम नहीं था। वह एक-एक डायलॉग बोलकर फिल्मों की कहानियां दो-दो घण्टे, फिल्म बहुत अच्छी हुयी तो दो तीन दिन में सुनाती थीं। उनके फिल्म सुनाने की बात सुनकर पास खेल रहे मेरे एकाध दोस्त और खिसक आये। आखिर किरन बुआ बहुत दिन बाद किसी फिल्म की कहानी सुनाने जा रही थीं। इसके पहले जब मैंने उनसे जीतेंद्र की फिल्म `मजाल´ सुनी थी तो उसका असर इतना तगड़ा था कि इत्तेफाकन उसे कुछ महीनों बाद हॉल में देखा तो किरन बुआ की सुनायी हुयी फिल्म ज्यादा अच्छी लगी थी। बुआ की कहानी में जिस तरह से जीतेंद्र ने काम किया था वैसा काम न फिल्म में उसने किया और न ही श्रीदेवी या जया प्रदा उतनी सुंदर लगीं जितनी बुआ की कहानी में लगी थीं।
बुआ की आवाज़ की उदासी बरकरार थी। कहानी में शुरू में वह ऊर्जा महसूस नहीं हुयी लेकिन जैसे ही कहानी ने दस मिनट का सफ़र तय किया, किरन बुआ की न जाने कहां खो गयी ऊर्जा वापस आने लगी।
``फिर एक दिन सुंदर वाली रेखा अपने पति से कहती है कि मुझे अपनी जायदाद में दूसरा हिस्सेदार नहीं चाहिये।´´यह कहती हुयी बुआ खड़ी हो गयीं। ``टेन टेणान टेन टेन....इसके बाद बेचारी जो गरीब वाली रेखा है, उसको मारने के लिये सुंदर वाली घमंडी रेखा गुंडा भेजती है....डिन डिन डिन डिन..टेन टेणेन..।´´ किरन बुआ पूरी तरह फॉर्म में आ चुकी थीं और जब रेखा को मारने के लिये पहुंचे गुंडे उस पर हमला करने लगे उन्होंने बाकायदा हाथ पांव चलाकर पहले की तरह पूरी फिल्म उपस्थित कर दी। हंसी वाले मौकों पर उनकी आवाज़, उनकी आंखें उनका पूरा शरीर हंसने लगता और भावुक पलों पर पूरा मोहल्ला भावुक हो जाता।
कहानी कुछ यूं थी कि एक ही अमीर बाप की दो बेटियां थीं जिनमें एक सुंदर और दूसरी कुरूप थी। सुंदर वाली बहुत घमंडी थी और कुरूप वाली बहुत आज्ञाकारी थी। रेखा का इसमें डबल रोल था। बाप के मरने के बाद सुंदर वाली अपने मन से शादी कर लेती है और कुरूप वाली को अपनी मर्जी से शादी नहीं करने देती। कुरूप रेखा राकेश रोशन से प्यार करती है, सुंदर वाली रेखा उसे मरवा देती है। सुंदर वाली रेखा कुरूप वाली रेखा से घर के सारे काम करवाती है और उसे बहुत मारती है। एक दिन उसे लगता है कि कहीं कुरूप वाली रेखा उसकी जायदाद में से हिस्सा न मांग ले, इसलिये वह अपने पति कबीर बेदी से एक ऐसी मांग करती है जिसे सुन कर वह घबरा जाता है। वह उससे मांग करती है कि वह उसकी बहन को मार डाले। उसकी `खून´ से `भरी´ यह `मांग´ सुनकर उसका पति डर जाता है लेकिन उसे अपनी पत्नी की यह `खून भरी मांग´ पूरी करनी पड़ती है। वह उसकी हत्या कर देता है। कहानी के अंत के बारे में किरन बुआ हम बच्चों को संतुष्ट नहीं कर पायीं। उन्होंने बताया कि कुरूप वाली रेखा के मरने के बाद उसका घोड़ा उसी तरह उसकी मौत का बदला लेता है जैसे तेरी मेहरबानियां में कुत्ते ने लिया था। हम बच्चे अंत से बहुत खुश नहीं थे लेकिन फिल्म हमें बहुत पसंद आयी थी। पूरी फिल्म सुनाने में किरन बुआ ने दो घंटे लिये थे और फिल्म खत्म होने के कुछ ही देर बाद जब वह गली में गोलगप्पे वाले को रोककर गोलगप्पे खाने वाली थीं कि उनकी मां ने उन्हें आवाज़ दी और वह चली गयीं।
यह हमारी आखिरी मुलाकात थी। इसके कुछ ही महीनों बाद पापा ने उसी शहर के एक दूसरे मुहल्ले में ज़मीन खरीद कर दो कमरे बनवा लिये और हम लोग किराये का वह कमरा छोड़ कर वहां शिफ्ट हो गये। मैं छठवीं क्लास में आ गया था और अपने दोस्तों के बीच रमने लगा था। मां बीच-बीच में अपने पुराने पड़ोसियों से मिलने पुराने मुहल्ले कभी-कभी जाती रहती थीं। एक दिन उन्होंने वहां से लौट कर बताया कि किरन आयी है और तुझे पूछ रही थी। मैं आठवीं में चला गया था। मां ने पापा से रोते हुये बताया कि बेचारी इतनी हंसमुख लड़की सिर्फ़ हडि्डयों का ढांचा भर रह गयी है। मैंने सोचा कि मैं किसी दिन मिलने ज़रूर जाउंगा।
मैं नवीं क्लास में चला गया था जब मां ने एक दिन लौट कर बताया कि किरन की अपने ससुराल में खाना बनाते समय जलने से मौत हो गयी। मैं सन्न रह गया। मां पापा से बता रही थीं कि स्कूटर देने के बाद से ही उसके ससुराल वाले सोने की चेन की मांग कर रहे थे। पिछली बार किरन ने रोते हुये उन्हें बताया था कि अगर उनकी मांग पूरी नहीं की गयी तो वे लोग उसे मार डालेंगे। मुझसे और सुना नहीं गया। मैं वहां से हट गया। मुझे रुलाई भी आयी लेकिन मैं उसे दबा ले गया।
जब मैं बारहवीं पास कर चुका था और बी. एससी. के कठिन मैथ और फिजिक्स से जूझने लगा था उन्हीं दिनों एक बदहवास से दिन दूरदर्शन पर शाम को `खून भरी मांग´ आने लगी। मेरा कहीं निकलने का प्लान नहीं था इसलिये मैं फिल्म देखने लगा वरना अब इस तरह की फिल्में मुझे पसंद नहीं आती थीं।
मैं जैसे-जैसे फिल्म देखता गया, मेरे भीतर कुछ भरता सा गया और कहीं कुछ खाली सा होता गया। फिल्म खत्म होते तक मैं पूरी तरह से भर कर एकदम खाली हो चुका था। न फिल्म में रेखा का डबल रोल था और न उसमें खून से भरी कोई मांग थी जिसे किसी को पूरा करने के लिये किसी का खून करना पड़े। मैं खुद को जज़्ब करने की कोशिश में अचानक हिचकियां लेने लगा था। मां दूसरे कमरे से आ गयी।
``क्या हुआ, रो रहे हो क्या ?´´ मां ने पूछा।
``नहीं, नहीं....।´´ मैंने आंखें पोंछते हुये कहा। ``उसे मार डाला....।´´ मैंने बात संभालने की कोशिश की।
``किसे...?´´ मां घबरा गयीं। उन्होंने टीवी देखा। टीवी पर रेखा अपनी हत्या की कोशिश करने वाले कबीर बेदी को बुरी तरह मार रही थी।
``रेखा को....।´´ मैंने कुछ शर्मिंदा होकर सामान्य होना चाहा।
``बेवकूफ हो क्या...रेखा ज़िंदा है। वही तो बदला ले रही है। पिक्चर का तुम्हारा कीड़ा न...।´´ मां बड़बड़ाती हुयी बाहर चली गयीं।
मैंने छत की ओर देखा और एक लम्बी सांस लेने की कोशिश की। एक छिपकली छत पर थी और एक सीने में आकर फंस गयी थी।
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बहुत मार्मिक कहानी...बेहद प्रभावशाली पात्र ! विमल चन्द्र पांडेय को बहुत बहुत बधाई व आपका आभार इसे पढवाने के लिये.
ReplyDeletevaah! bahut umda kahani!! Pandey G ko shukriya.
Deletereally amazing n touching......hamesha yaad rahegi ye kahaani.....
ReplyDeletecongrates for such a wonderful writing..........
amazing n really touching.....
ReplyDeletecongrtulations for a such a wonderful writing......
आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति
ReplyDeleteबुधवारीय चर्चा-मंच
पर है |
charchamanch.blogspot.com
I like it. nice story Vimal ji.
ReplyDeleteWith Best Wishes
kahani ka plot pahle hee pata thaa..lekin prastuti behad maarmik hai..hasan sthaapit nahee ho paaya mere dimaag mein..uska kirdaar thoda space maangtaa thaa..chunki kahaani kiran buaa ki hai to utne mahatva ki baat nahee hai ye..vimal ke nirantar aur stareeya lekhan se jalan ho rahee hai...
ReplyDeleteठीक है इसलिये कि इसे विमल चन्द्र पाण्डेय ने लिखा है जैसे शाहरुख ने स्वदेश जैसी फिल्म मे काम किया था!अलग टेस्ट है !विविधतापूर्ण लेखन के लिये हम आपके आभारी है
ReplyDeletekahani itani achhi lagi ki ek sans me padh gai
ReplyDeleteबधाई विमल, क्या हो गया है आजकल तुमको, उत्तर प्रदेश की खिड़की के बाद एक और शानदार कहानी... गजब की खुली हुई, स्मृतियों में रची पगी... लग रहा है कि जैसे किसी महान लेखक की आत्मा आ गई है तुम्हारे भीतर... अच्छा लिखने के कुछ गुर हमें भी सिखाओ भाई... बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएं...
ReplyDeleteविमल अपनी हर कहानी में पाठक को नवीनतम कथा-तंतुओं तक ले जाते हैं और अपनी शैली और कथक्कडी से अनायास ही बाँध लेते हैं. खून भरी मांग भी उनकी एक बढ़िया कहानी है. विमल को बधाई एवं मनोज पटेल का पुनः आभार एक बेहतर रचना से रू-ब-रू कराने के लिए. santosh chaturvedi
ReplyDeleteबहुत ढेर सारी बधाई.कहानी अच्छी अलगी..अंत तक बांधे रखे में समर्थ.एक बच्चे के मन की स्थिति का सुन्दर चित्रण ...जिसकी एक ही चाह है पिक्चर देखना .यह सच भी है न...कि क्यूँ इतना बड़ा हुआ जाए कि लोग हमसे डरने लगें.शादी में खाने तक ..जब दुनिया सीमित हो..तो ,बाकी चीज़ें कहाँ समझ आती हैं .
ReplyDeleteकहानी के अंत में..खून भरी मांग देख कर उस लड़के का रोना ..दिल को छू गया
Sabhi mitron ka abhar !!
ReplyDeletethanks vimal ji hume khani bhaut pasand aai
ReplyDeleteबुआ की मौत को साक्षात् अपने सामने घटित होते हुए देखा.. और एक छिपकली गले में फंस गई..
ReplyDeleteदुखद अंत के साथ समाज कि कई संकीर्ण सोचों को उजागर करती हुई एक अपने में अलग किस्म कि कहानी है ये.
ReplyDeleteपाठक को कई जगहों पर सोचने पे विवश कर देने वाली .... लिखते रहिये
सुन्दर लेखन
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