Monday, April 2, 2012

मार्गरेट एटवुड : बाहर खाना

आज प्रस्तुत है मार्गरेट एटवुड की एक कविता...  

 
उनका बाहर खाना : मार्गरेट एटवुड 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

रेस्तरां में हम झगड़ते हैं 
कि हममें से कौन भरेगा तुम्हारी अंत्येष्टि का खर्च 

गो कि असल सवाल ये है 
कि मैं तुम्हें अमर बनाऊँगी या नहीं. 

फिलहाल तो 
सिर्फ मैं ही कर सकती हूँ ऐसा 

और इसलिए बीफ फ्राईड राईस की प्लेट के ऊपर से 
मैं उठाती हूँ जादू दिखाने वाला काँटा 

और भोंक देती हूँ तुम्हारी सीने में. 
एक धीमी सी फक्क की आवाज होती है, एक सुरसुराहट 

और अपनी खुली हुई खोपड़ी में से 
तुम ऊपर उठने लगते हो चमकते हुए; 

छत खुल जाती है 
कोई गाता है लव इज अ मेनी 

किसी शानदार चीज जैसे 
तुम अधर में लटके रहते हो शहर के ऊपर 

तंग नीली जींस और लाल लबादे में,  
टिमटिमाती हैं तुम्हारी आँखें, सुर मिलाते हुए 

भोजन करने वाले अन्य लोग देखते हैं तुम्हें 
कुछ आश्चर्य से और कुछ सिर्फ ऊबते हुए: 

वे तय नहीं कर पा रहे कि तुम कोई नया हथियार हो 
या महज कोई नया इश्तहार. 

जहां तक मेरी बात है, मैं जारी रखती हूँ खाना; 
तुम जैसे थे भले लगते थे मुझे, 
मगर महात्वाकांक्षी थे तुम हमेशा से ही. 
                    :: :: :: 

3 comments:

  1. आभार ।

    बढ़िया प्रस्तुति ।।

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  2. Complexities of human mind/human behaviour is always so surprising...

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  3. tum koi naya hathiyar ho ya mahaj koi naya eshtihar,adbhut kavita.

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