रूसी कवियत्री वेरा पावलोवा की नोटबुक से दो अंश आप यहाँ और यहाँ पढ़ चुके हैं. प्रस्तुत है एक और अंश...
वेरा पावलोवा की नोटबुक से
(अनुवाद : मनोज पटेल)
तोहफे के तौर पर अपनी किताबें देकर मैं अपना अधिकार-क्षेत्र निर्धारित करती हूँ.
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मैं उन पटरियों पर आगे बढ़ते हुए अपना जीवन जीती हूँ जिन्हें मैंने खुद बिछाया है. मैं पटरियां कहाँ से पाती हूँ? जिन पटरियों पर मैं चल चुकी होती हूँ, उन्हें उखाड़ लेती हूँ.
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मेरी डायरियां मेरे पूर्व आत्म द्वारा मेरे भावी आत्म को लिखी चिठ्ठियाँ हैं. मेरी कविताएँ उन चिठ्ठियों का जवाब हैं.
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एक सपने में पुश्किन मुझे बताते हैं: "मेरे लेखन के तीन स्रोत हैं, ग्रामोफोन, मेढक और बुलबुल."
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गाय के गले में बंधी घंटी, खतरे की घंटी के उलट होती है: यदि आप उसे सुन रहे हैं तो सब ठीक-ठाक है; यदि नहीं सुन रहे तो कुछ गड़बड़ है. मेरी कविता खतरे की घंटी नहीं, गाय के गले में बंधी घंटी है.
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यदि कविताएँ बच्चों जैसी हैं तो कविता-पाठ शिक्षक-अभिभावक संघ की बैठकों जैसे.
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सही मायनों में खूबसूरत वे लोग होते हैं जो बदसूरत दिखने से डरते नहीं. कविताओं के मामले में भी यही सच है.
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(जारी...)
बहुत सुंदर शब्द और भाव...आभार!
ReplyDeleteऐसा लगता है की कवि का शब्द कोई अनोखी मिटटी से बनता है-वे कुछ भी लिखते है तो कई स्पंदन रच देते है.....
ReplyDeleteबहुत सुंदर !
ReplyDeleteकविता जैसे ही हैं नोटबुक के अंश।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर . प्रभावी अनुवाद .
ReplyDeleteबहुत सुन्दर . प्रभावी अनुवाद .
ReplyDeleteआख़िरी बात एक उम्र की कमाई सरीखी है.
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