आज फिर से नाजिम हिकमत...
हिरोशिमा की बच्ची : नाजिम हिकमत
(अनुवाद : मनोज पटेल)
मैं आती हूँ और खड़ी होती हूँ हर दरवाजे पर
मगर कोई नहीं सुन पाता मेरे क़दमों की खामोश आवाज
दस्तक देती हूँ मगर फिर भी रहती हूँ अनदेखी
क्योंकि मैं मर चुकी हूँ, मर चुकी हूँ मैं
सिर्फ सात साल की हूँ, भले ही मृत्यु हो गई थी मेरी
बहुत पहले हिरोशिमा में,
अब भी हूँ सात साल की ही, जितनी कि तब थी
मरने के बाद बड़े नहीं होते बच्चे
झुलस गए थे मेरे बाल आग की लपलपाती लपटों में
धुंधला गईं मेरी आँखें, अंधी हो गईं वे
मौत आई और राख में बदल गई मेरी हड्डियां
और फिर उसे बिखेर दिया था हवा ने
कोई फल नहीं चाहिए मुझे, चावल भी नहीं
मिठाई नहीं, रोटी भी नहीं
अपने लिए कुछ नहीं मांगती
क्योंकि मैं मर चुकी हूँ, मर चुकी हूँ मैं
बस इतना चाहती हूँ कि अमन के लिए
तुम लड़ो आज, आज लड़ो तुम
ताकि बड़े हो सकें, हंस-खेल सकें
बच्चे इस दुनिया के.
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marmik abhivyakti. santosh chaturvedi
ReplyDeleteओह! क्या मासूमियत है!
ReplyDeleteसंयोग या दुर्योग से कल हीरोशिमा- नागासाकी की रपट पढना शुरू किया था, आज उसी पर कविता ...
मरने के बाद बच्चे बड़े नहीं होते...मार्मिक कविता !
ReplyDeleteमरने के बाद बच्चे बड़े नहीं होते
ReplyDeletemarne ke baad bacche bade nahi hote
ReplyDeletedardnaak haadsa hai yeh kavita..dil bhar aaya..vakai..
ReplyDeleteउस दर्दनाक हादसे की याद दिलाती एक बेहद मार्मिक और मासूम कविता ! नाज़िम कीकलम को सलाम ! आपके अनुवाद किसी भी रचना की स्वाभाविकता और सहजता को बचाए रखते हैं ! इसके लिए पको बधाई ,मनोज जी !
ReplyDeleteअमन के लिए इस से अधिक काव्यात्मक प्रार्थना कठिन है . तीसरी पंक्ति में अनदेखी की जगह अदेखी बेहतर रहता.
ReplyDeleteबहतरीन कविता है .......
ReplyDeleteबहतरीन कविता है .......
ReplyDeleteबहतरीन कविता है .......
ReplyDeleteलड़ो और जीतो ताकि बच्चे भी बड़े हो सके
ReplyDeleteबहुत मार्मिक कविता का एक बेहतरीन अनुवाद. धन्यवाद.
ReplyDeleteNo words to explain the depth of words!
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