चार्ल्स सिमिक की एक और कविता...
कबाड़खाने में : चार्ल्स सिमिक
(अनुवाद : मनोज पटेल)
छोटी सी एक टोकरी बेंत की
बीते दिनों के उन महान युद्धों के
तमगों से भरी हुई
जिन्हें अब कोई याद नहीं करता.
मैनें पलटा एक तमगा
उस पिन को छूने के लिए
जो चुभी होगी कभी
उस बाँकुरे की फूली हुई छाती में.
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भूली बिसरी यादें, खंडहर बताते हैं कि इमारत कितनी बुलंद थी
ReplyDeleteसमय गुजर जाने पर युद्ध और उनके बाद मिले तमगे बेमानी हो जाते हैं.
ReplyDeletesamay gujar jane ke baad yuddha ki nishaniyan yon hi chubha karti hain....
ReplyDeletebankure ki chhati me chubhi wo pin kahin na kkahin hame bhi chubha karti hai...
yudh jo ham par thope jate hain vo pin ki tarah hi chubhan dete hain.
ReplyDeleteउन लोगों की याद ,युद्ध में जिनकी मैंने हत्या की थी ,इस तमगे के पिन की तरह चुभते रहे ! बहुत अच्छी कविता ! सुंदर अनुवाद ! आभार !
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