इज़त सरजलिक की एक और कविता...
सरायेवो में किस्मत : इज़त सरजलिक
(अनुवाद : मनोज पटेल)
सब कुछ मुमकिन है
सरायेवो की
१९९२ की बसंत ऋतु में:
कि आप खड़े हों एक कतार में
ब्रेड खरीदने के लिए
और पहुँच जाएं किसी इमरजेंसी वार्ड में
अपनी टाँगे कटवाए हुए.
और तब भी कह सकें
कि किस्मतवाले रहे आप.
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दिल दहलाने वाली कविता.घायल होकर भी जिन्दा रहने को खुशकिस्मती मानने की स्थिति सच में दुखद है.
ReplyDeleteऐसे खतरनाक हालात कि टांगें कटवा कर भी कोई सस्ते में छूट जाए ! कमाल है ! आभार मनोज जी !
ReplyDeleteयह तो अपने देश में भी कभी भी कहीं भी हो सकता है...
ReplyDeleteवाह....
ReplyDeleteऐसे मार्मिक विषय पर इतनी सहज कविता?????
लाजवाब...
अनु
ye kitne dukh ki baat hai fir bhai sach to yahi hai.
ReplyDeleteवेधक-----
ReplyDeleteजो लोग बोस्निया -हर्जेगोविना के हालात से परिचित रहे हैं , वे जानते हैं कि यह कविता उस समय के किस सच पर उंगली रखती है | युगोस्लाविया का वह रक्तपूर्ण विभाजन यूरोप के माथे पर लगा ऐसा बदनुमा दाग है , जिसे आसानी से नहीं धोया जा सकता ...| इस कविता को सामने लाने के लिए आपका आभार ....
ReplyDeleteजहां सर्वस्व लूटने वाला हो वहाँ जो बच जाये वही खुशकिस्मती!
ReplyDeleteअच्छी कविता!
आपके इस खूबसूरत पोस्ट का एक कतरा हमने सहेज लिया है भारत और इंडिया के बीच पिसता हिंदुस्तान : ब्लॉग बुलेटिन के लिए, पाठक आपकी पोस्टों तक पहुंचें और आप उनकी पोस्टों तक, यही उद्देश्य है हमारा, उम्मीद है आपको निराशा नहीं होगी, टिप्पणी पर क्लिक करें और देखें … धन्यवाद !
ReplyDeletesahajta me etnee marmikta gazab
ReplyDeleteयह कविता पूरी तरह मेरे लिए है.
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