ऊलाव हाउगे की एक और कविता...
एकाकी चीड़ : ऊलाव हाउगे
(अनुवाद : मनोज पटेल)
काफी जगह है यहाँ, तुम
फ़ैल सके और चौड़ा कर सके
अपना ताज.
पर तुम खड़े हो अकेले.
जब तूफ़ान आते हैं,
कोई नहीं होता तुम्हारे पास
सहारा लेने के लिए.
:: :: ::
वाह..........
ReplyDeleteगहन अर्थ लिए रचना....
अनु
सच, मात्र विस्तार की संभावनाएं होना ही पर्याप्त नहीं!
ReplyDeleteसुन्दर कविता!
ऊंचाई पर हम अक्सर अकेले खड़े होते हैं.
ReplyDeleteगहन अर्थ लिए
ReplyDeleteबेहतरीन रचना
:-)
अपने व्यक्तित्व और आत्म-गरिमा का विस्तार ही चरम लक्ष्य नहीं है ,तुम्हारे साथ कितने और तुम कितनों के साथ खड़े हो ,यह महत्वपूर्ण है ,क्योंकि एकाकी होना अपने अस्तित्व के सामाजिक अर्थ को खो देना है !
ReplyDeleteबहू अच्छी कविता प्रस्तुत की मनोज जी ! आभार !
करारी रचना.
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