येहूदा आमिखाई की एक और कविता...
चप्पलें : येहूदा आमिखाई
(अनुवाद : मनोज पटेल)
चप्पलें कंकाल होती हैं एक समूचे जूते की,
कंकाल, और उसकी इकलौती वास्तविक आत्मा.
चप्पलें लगाम हैं मेरे सरपट भागते क़दमों की
और एक थके हुए पैर के
चप्पलें निजी भूमि के टुकड़े हैं, जिन पर मैं चलता हूँ
जहां भी मैं जाऊं, मेरी मातृभूमि की राजदूत,
मेरा असली वतन, आसमान हैं वे झुण्ड बनाकर घूमते
पृथ्वी के छोटे जीवों के लिए
और उनके संहार का दिन, निश्चित है जिसका आना.
चप्पलें जवानी होती हैं जूते की
और बीहड़ में घूमने की एक स्मृति.
मुझे नहीं पता कि कब वे खो देंगी मुझे
या कब मैं खो बैठूंगा उन्हें, मगर
गुम हो जाएंगी वे दोनों अलग-अलग जगहों पर :
एक मेरे घर के करीब
पत्थरों और झाड़ियों के बीच, और दूसरी
डूब जाएगी समुन्दर के पास रेत के टीलों में
डूबते हुए सूरज की तरह,
डूबते हुए सूरज के सामने.
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Manoj Patel, Tamsa Marg, Akbarpur - Ambedkarnagar (U.P.), Pincode - 224122
'चप्पलें लगाम हैं मेरे सरपट भागते क़दमों की.....' चप्पलों और जूतों के रूपकों के ज़रिए खूब ताना-बना बुना है एक अच्छी कविता का.
ReplyDeleteNice post .
ReplyDeletehttp://za.samwaad.com/2012/01/blog-post.html
चप्पलों और जूतों के रिश्ते के बारे में तो आज तक नहीं सोचा था..जहाँ न पहुँचे रवि वहाँ पहुँचे कवि!
ReplyDeleteamazing!
ReplyDeleteआभार ... आप खूबसूरत बातें हम तक पहुंचाते है ... सेतु होना बड़ी बात है ... हर माध्यम एक सेतु है ... आप दोनों हैं ... पुन: आभार
ReplyDeleteख़ूबसूरत भावाभिव्यक्ति, बधाई.
ReplyDeleteपधारें मेरे ब्लॉग meri kavitayen पर भी, मुझे आपके स्नेहाशीष की प्रतीक्षा है.