अब्दुल्ला ज़रिका का जन्म कैसाब्लांका में १९५३ में हुआ था. उनका पहला कविता-संग्रह १९७७ में प्रकाशित हुआ. १९८१ से १९९५ के बीच उनके पांच कविता-संग्रह प्रकाशित हुए और १९९१ से १९९८ के बीच दो उपन्यास. वे कैसाब्लांका में रहते हैं. यहाँ उनकी लम्बी कविता 'ब्लैक कैंडल ड्राप्स' का एक अंश प्रस्तुत है...
अब्दुल्ला ज़रिका की कविता
(अनुवाद : मनोज पटेल)
एक प्याला दे दो मुझे
इस खालीपन को खाली करने के लिए
और एक बाँह
इस वियोग को नापने के लिए
एक पलंग तैयार कर दो मेरे लिए
कांच का
जिसपर फिसल सकें मेरे दु:स्वप्न
ऐसा कोई अक्षर नहीं पढ़ना चाहता मैं
जो गड़ न जाए मेरी आँखों में
कील की तरह
दौड़ते आ रहे उस कुत्ते को पेश कर दूंगा अपना हाथ
कुछ उंगलियाँ चबा जाने के वास्ते
और बहुत सारी सफेदी छोड़ जाऊंगा अपनी रचनाओं में
उस वेश्या के गोंदने की खातिर जैसा भी वह चाहे
(यह कोई कलम नहीं
बल्कि कुदाली है
उस कवि को ढहाने के लिए
जो मुझे तंग करता रहता है)
चींटियाँ चलेंगी मेरे जनाजे के पीछे, और
मैं उस शख्स के लिए खाली कर दूंगा अपनी कब्र
जिसके पास कोई जगह नहीं होगी सोने के लिए
और बहुत सारी सफेदी छोड़ जाऊंगा अपनी रचनाओं में
उस अँधेरे को रोशन करने के लिए
जो आता है लफ़्ज़ों की रात के साथ
तुम्हारी शादी के दिन के लिए छोड़ जाऊंगा सफ़ेद रंग
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Manoj Patel, Tamsa Marg, Akbarpur, 09838599333, Parhte Parhte, Parte Parte, Padte Padte
"ऐसा कोई अक्षर नहीं पढ़ना चाहता मैं
ReplyDeleteजो गड न जाय मेरी आखों में
कील की तरह "...!!
"यह कोई कलम नहीं
ReplyDeleteबल्कि कुदाली है
उस कवि को ढहाने के लिए
जो मुझे तंग करता रहता है "
बहुत मार्मिक और सशक्त अभिव्यक्ति ! इस कविता के सफल और स्वाभाविक अनुवाद केलिए आभार मनोज जी !
सशक्त और प्रभावशाली रचना|
ReplyDeleteजानदार! शानदार! ग़ज़ब बिंब और ग़ज़ब रूपक! पूरी कविता का एक-एक शब्द उद्धृत किए जाना लायक़! बहुत सहज अनुवाद.
ReplyDeletedifficult but good!!!
ReplyDeletethanks.
सुन्दर-सुन्दर...............!!!!!!
ReplyDeleteAap jane kaha se chun chun kar kavitayen late hai jo aankho me nahi man ki taho me uthar aati hai
ReplyDeleteकितनी बार आता हूँ और जाने कितना कुछ पढते रहता हूँ.. मन है कि भरता ही नहीं ..आपकी मेहनत को सलाम..
ReplyDeleteविजय