मार्क स्ट्रैंड की एक कविता...
चन्द्रमा से प्रेम करने वाले एक कवि का निशा गीत : मार्क स्ट्रैंड
(अनुवाद : मनोज पटेल)
मैं चन्द्रमा से ऊब चुका हूँ, ऊब चुका हूँ उसकी विस्मय भरी निगाह से, उसकी निगाह की नीली बर्फ से, उसके आगमन और प्रस्थान से, उस तरीके से जिसमें वह प्रेमी जोड़ों और एकाकी लोगों को, उनके बीच कोई अंतर कर पाने में असफल रहते हुए, अपने अदृश्य डैनों के नीचे जुटाए रहता है. मैं उन बहुत सी चीजों से ऊब चुका हूँ जो मुझे सम्मोहित कर लिया करती थीं, ऊब चुका हूँ धूप में चमकती घास पर गुजरती बादलों की परछाईं देखने से, झील में हंसों को आगे-पीछे तैरते हुए देखने से, अपने अभी तक अजन्मे आत्म की एक छवि मिल जाने की उम्मीद में अँधेरे में झाँकने से. आँखों में सादगी को दाखिल होने दो, ऎसी मेज की सादगी जिस पर कुछ नहीं रखा है, ऎसी मेज जो मेज भी नहीं है.
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Manoj Patel, translator & blogger
एक बार फिर अच्छी कविता........!!
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