Sunday, January 22, 2012

अरुंधती राय : मुकेश अम्बानी पूंजीवाद के सबसे बड़े प्रेत हैं

मुम्बई के सेंट जेवियर्स कालेज में अरुंधती राय ने कल अनुराधा गांधी स्मृति व्याख्यान दिया. समाचार पत्रों की कतरनों को संकलित करके उनकी ख़ास-ख़ास बातों को पेश करने की कोशिश कर रहा हूँ... 















मुकेश अम्बानी पूंजीवाद के सबसे बड़े प्रेत हैं : अरुंधती राय 
(अनुवाद/प्रस्तुति : मनोज पटेल) 

चूंकि हम पूंजीवाद के प्रेत के बारे में बात कर रहे हैं, मैं अपने ढंग के अनोखे मुकेश अम्बानी के साथ अपनी बात शुरू करना चाहूंगी. मैं अल्टामाउंट रोड पर उनका घर एंटिला देखने गई थी; मेरे साथ मौजूद मेरे दोस्त के मुंह से निकला, "आ पहुंचे हम, अपने नए बादशाह को सलाम बजाइए." 

मैं मुकेश अम्बानी के आज तक के सबसे महंगे आशियाने के बारे में कुछ पढ़कर सुनाना चाहूंगी, सत्ताईस मंजिलें, तीन हेलीपैड, नौ लिफ्ट, हैंगिंग गार्डेन, बालरूम्स, वेदर रूम्स, जिम्नेजियम्स, छः मंजिला पार्किंग, और ६०० नौकर. मगर किसी ने मुझे वर्टिकल लान के लिए तैयार नहीं किया था जो कि धातु की एक बड़ी सी जाली से लगी हुई घास की एक बहुत ऊंची दीवार है. कई टुकड़ों की घास सूखी हुई थी; एकदम आयताकार टुकड़ों के कई हिस्से कम थे. साफ़ था कि 'ट्रिकल डाउन' यानी छन कर नीचे जाने के सिद्धांत ने काम नहीं किया था. जब मैं वहां से निकल रही थी तो मैनें बगल की इमारत पर एक बोर्ड लगा हुआ देखा जिस पर लिखा था, 'बैंक आफ इंडिया'. 

दरअसल भारतीय पूंजीवाद का प्रतीक एंटिला उच्च एवं निम्न वर्ग को अलग-अलग करने वाला भारत का सबसे बड़ा अलगाववादी आन्दोलन है. मुम्बई के आसमान में जैसे ही सितारे दिखाई देना शुरू करते हैं, लिनन की कड़क शर्ट और खड़खड़ाते वाकी-टाकी वाले गार्ड एंटिला के भयावह गेट के सामने प्रकट होने लगते हैं. तमाम चकाचौंध रोशनियाँ जल उठती हैं... किसी ने कहा कि एंटिला ने मुम्बई की रातों को छीन लिया है... अब समय आ गया है कि उसे वापस छीन लिया जाए.    

हमारे पास कारोबार के प्रतिकूल स्वामित्व पर कोई क़ानून नहीं है; जिसके कारण जिसके पास जितना ही ज्यादा पैसा हो वह उतना ही ज्यादा पैसा कमा सकता है. इस तरह हमारे यहाँ हालत यह है कि कारपोरेट्स अपनी स्थिति या ताकत का दुरूपयोग नहीं कर रहे बल्कि उस स्थिति का फायदा उठा रहे हैं जो सरकार ने उन्हें प्रदान कर रखी है. उदाहरण के लिए सिर्फ 0.2 प्रतिशत रायल्टी पर उन्हें अरबों-खरबों डालर की खनिज संपदा के खनन का अधिकार दे दिया गया है. 

उनके पास असहमति से निपटने के अपने ही तरीके हैं. अपने मुनाफे के एक बहुत छोटे हिस्से से वे अस्पताल, शिक्षण संस्थाओं और ट्रस्टों का संचालन करते हैं और ये ट्रस्ट एन जी ओ, बुद्धिजीवियों, पत्रकारों, फिल्म निर्माताओं, साहित्य महोत्सवों और यहाँ तक कि प्रतिरोध आन्दोलनों को भी वित्तीय मदद देते हैं. यह दान के प्रलोभन द्वारा जनमत निर्माताओं को अपने प्रभाव-क्षेत्र में लाने का तरीका है. भारत के दो सबसे बड़े चैरिटेबुल ट्रस्टों का संचालन टाटा करती है. हाल ही में उन्होंने हारवर्ड बिजनेस स्कूल नाम के एक जरूरतमंद संस्थान को पचास मिलियन डालर दान में दिए. खनन, धातु एवं विद्युत् जैसे क्षेत्रों में व्यापक हित रखने वाली जिंदल, 'जिंदल ग्लोबल ला स्कूल' चलाती है, जिसने हाल ही में प्रतिरोध पर कैसे काबू पाया जाए विषय पर एक कार्यशाला आयोजित की. जल्दी ही वे जिंदल स्कूल आफ गवर्नमेंट एंड पब्लिक पालिसी शुरू करने जा रहे हैं. 

सरकार, विपक्ष, न्यायालय, मीडिया और उदारवादी विचारधारा को साध लेने का बंदोबस्त कर लेने के बाद लोगों की ताकत को, बढ़ती हुई अशांति को साध पाना ही बाक़ी रह जाता है. इन्हें कैसे साधा जाए? प्रदर्शनकारियों को पालतू कैसे बनाया जाए? लोगों के गुस्से को खींचकर उसे अंधी गलियों में कैसे घुमा दिया जाए. भारत में अन्ना हजारे का आन्दोलन इसका बढ़िया उदाहरण है.  
                                                            :: :: :: 
Manoj Patel, Arundhati Roy on Mukesh Ambani    

21 comments:

  1. एक जिज्ञासा हो रही है कि आदरणीय अरुंधती राय जी को मुकेश अंबानी के पूँजी वाद के सबसे बड़े प्रेत होने का ज्ञान कब हुआ? एंटिला से लौटने के बाद या वहाँ जाने के पहले से था ?
    ...इस प्रश्न का उत्तर उन्हीं से मिल पाता तो आनंद आता।

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    1. अरुन्धन्ती राय के पूर्व लेख बताते रहे हैं कि वे बहुत अच्छे से समझती रही हैं की न सिर्फ मुकेश अम्बानी,बल्कि पूंजीवाद के बहुत सारे प्रेत खुले आम यहाँ विचरण कर रहे हैं ...

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  2. अरुंधती की कलम को सलाम !

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  3. क्या जबरदस्त विश्लेषण है ! अरुंधती राय सचमुच अद्भुत हैं ! इस लेख के लिए मनोज जी को धन्यवाद !

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  4. अरुंधति को तो सलाम जो बेबाकी से बोलती हैं और निशाने पर आमे व `अलोकप्रिय` (राष्ट्रवादियों में ही नहीं क्रांतिकारियों के बीच भी) होने का खतरा उठाते हुए भी हरामखोरियों के खिलाफ ध्यान खींचती हैं। लेकिन कुल मिलाकर जो हाल है, उसके चलते ऐसी बातें गहरे अफसोस में छोड़ देती हैं। वोडाफोन वाले कोर्ट के फैसले ने तो और भी निराश किया।

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  6. एक बुनियादी सवाल उठाया है यहां, अरुंधति ने. हल्की और मसखरापन दर्शाने वाली टिप्पणियों से इसकी अहमियत को कम करने की कोशिश नहीं की जानी चाहिए. किस तरह अमीर बना जाता है, प्राकृतिक संसाधनों के बदले सरकार को कितना कम लौटाकर, और किस तरह अमीरी का अहंकारशास्त्र निर्मित किया जाता है, यह आम समझदार व्यक्ति के लिए चिंता का सबब बनना चाहिए. यह लोकतंत्र पर तो एक टिप्पणी है ही, ऐसा शक्ति प्रदर्शन भी है जो देर-सवेर लोगों के असंतोष को भडकाए बिना नहीं रह सकता. एक बड़े से बड़े आदमी की कितनी ज़रूरतें हो सकती हैं, और उनके अनुपात में यह सब तामझाम कितना गुना अधिक है. अरुंधति ने एक ज़रूरी मुद्दे की ओर ध्यान खींचा है. यह मुद्दा किसी दिन वंचितों के क्रोध की अग्नि को भड़का सकता है. इसे हलके से लेना सरकार तक को भारी पड़ सकता है, किसी दिन. व्यक्तिगत उपभोग की लोई सीमा तो एक कभी न कभी समाज को निश्चित-निर्धारित करनी ही पड़ेगी.

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  7. बेहतरीन लेखन...

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  8. is post men anuradha gaandhi kaun thi ye bhi bataya hota to achcha lagta.

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  9. is post men anuradha gaandhi kaun thi ye bhi bataya hota to achcha lagta.

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  10. अच्छा लगा । अरुंधती राय की वैचारिकी अनुकरणीय है ।

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  11. अरुंधती के हर लेख/विचार की तरह यह भी एकदम शानदार/धारदार और जबरदस्त है.जिनकी जमीन,रोटी,घर सब कुछ छीना जा रहा है, वहां पुलिस/सेना भेजकर गोलियाँ चलवाई जा रही हैं, उन्ही के खून और संपत्ति से यह महल तैयार हुआ है. निश्चित रूप से ये सबसे बड़ा आंदोलन है.

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  12. लोकतन्त्र आपने घोर पतन के दोर में सारी नेतिक मर्यादायो को लंगते हुवे हमें महाविनाश की तरफ़ ले जा रहा हैं व अरुन्धिती जेसे बुद्धिजीवी बोधिक संतुष्टि की खुराक उन्ही लोकंत्र्वदियो को दे रहें जिनके पास लोकतन्त्र का कोई विकल्प नहीं. पहले विश्व युद्ध के बाद आज तक इस मानव हंता व्यवस्था ने ६ करोड़ से अधिक लोगों को लील लिया. आज तक के युद्ध मनको की सभी सीमाए लांग दी व फिर भी हम इसके ही ढोल-नगाड़े पिट रहें. यह शर्म हैं की हम अभी तक लोकतंत्र के भंवर में फसे भ्रम पाले हैं !

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  13. लोकतन्त्र आपने घोर पतन के दोर में सारी नेतिक मर्यादायो को लंगते हुवे हमें महाविनाश की तरफ़ ले जा रहा हैं व अरुन्धिती जेसे बुद्धिजीवी बोधिक संतुष्टि की खुराक उन्ही लोकंत्र्वदियो को दे रहें जिनके पास लोकतन्त्र का कोई विकल्प नहीं. पहले विश्व युद्ध के बाद आज तक इस मानव हंता व्यवस्था ने ६ करोड़ से अधिक लोगों को लील लिया. आज तक के युद्ध मनको की सभी सीमाए लांग दी व फिर भी हम इसके ही ढोल-नगाड़े पिट रहें. यह शर्म हैं की हम अभी तक लोकतंत्र के भंवर में फसे भ्रम पाले हैं !

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  15. अरुंधति वहां क्यों गई थी और इसका जवाब मिलता तो आनंद आ जाता, जैसी बातों का क्या जवाब हो सकता है? अरुंधति के वहां जाने का कीमती नतीजा इस पोस्ट में सामने है। अभी तो जिस तरह का माहौल बना दिया गया है उसमें शोषकों की ऐशगाहों के कसीदे ही काढ़े जाते हैं और शोषकों को हीरो की तरह पेश किया जा रहा है। वे वॉल स्ट्रीट आंदोलन के समर्थन में अमेरिका भी गई थी औऱ उन्होंने प्रतिकूल स्वामित्व समाप्त करने की मांग भी उठाई थी। अरुंधति प्रतिरोध का बेहद सजग और मुखर स्वर हैं।

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  16. अरुन्धति या कोई भी कहीं भी क्यों जाता है, इस से ज़्यादा ज़रूरी सवाल यह है कि उस ने वहाँ देखे हुए को किस की नज़र से यहाँ शेयर किया? अम्बानी की या आम आदमी की नज़र से ? पता नही हम इस पतंशील व्यवस्था से कैसे और कब तक भिड़ पाने की स्थिति मे होंगे ? लेकिन इस तरह के लेख आम आदमी की इस खतर्नाक कंडीशनिंग को तोड़ता ही है कि * सब कुछ चलता है*..... इसी लिए इसे अपने जैसे अन्य आम आदमियों मे शेयर कर के आनन्द आयेगा. आभार, यह टुकड़ा यहाँ पेश करने के लिए.

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  17. जो कार्पोरेट्स जयपुर सांस्कुतिक के प्रायोजक है? अनुराग मोदी

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  18. मैं अरूंधति को नापसंद करता था, शायद अब भी हूँ लेकिन इधर जब से कुछ उनका बोला- कहा पढता जा रहा हूँ... हमारी समझ उनके प्रति बदल रही है...

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  19. अरुन्धंती राय के द्वारा दिया गया वक्तव्य एक खतरा मोल लेने के बराबर है , पीर भी हम उनकी बात से सहमत हैं !

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  20. अरुंधति राय का नाम और उनसे सम्बन्धित खबरे अखबारो मे पढी थी मगर उनकी लेखनी/कलम से आज मै पहली बार परिचित हुआ हु. वाकई उनकी लेखनी हर किसी को विचार करने पर मजबूर कर देती है.

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