Tuesday, January 24, 2012

सिनान अन्तून की कविताएँ


"आजादी! कल उनके ताज पिघलाएंगे हम, तुम्हारी पायल के लिए." 
(सिनान अन्तून)  

जाने-माने इराकी कवि, उपन्यासकार और अनुवादक सिनान अन्तून का जन्म 1967 में बग़दाद में हुआ था. खाड़ी युद्ध के बाद उन्होंने इराक छोड़ दिया. अरबी भाषा में दो कविता-संग्रहों और दो उपन्यासों के अलावा उन्होंने अनुवाद का भी बहुत सा काम किया है. महमूद दरवेश की कविताओं का उनका सहअनुवाद 2004 में पेन ट्रांसलेशन प्राइज़  के लिए नामांकित हो चुका है. हाल ही में महमूद दरवेश की आखिरी गद्य पुस्तक का उनका अनुवाद आर्किपिलागो बुक्स ने 'इन द प्रजेंस आफ एब्सेंस'  के नाम से प्रकाशित किया है. एक वृतचित्र अबाउट बग़दाद का सह -निर्माण भी. बग़दाद विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य की डिग्री और हार्वर्ड विश्वविद्यालय से डाक्टरेट. फिलहाल न्यूयार्क यूनिवर्सिटी में अध्यापन. यहाँ प्रस्तुत कविताएँ अंग्रेजी में उपलब्ध उनके कविता-संग्रह 'द बग़दाद ब्लूज' से ली गई हैं. इन्हें अनुदित और प्रकाशित करने की अनुमति देने के लिए हम कवि के आभारी हैं. 

















सिनान अन्तून की कविताएँ 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

जब युद्ध से छलनी हो गया मेरा सीना 

एक ब्रश उठाया मैनें 
मौत में डुबोया हुआ 
और एक खिड़की बना दी 
युद्ध की दीवार पर 
मैनें खोला इसे 
किसी चीज की 
तलाश में 
मगर 
देखा एक और युद्ध 
और एक माँ 
जो एक कफ़न बुन रही थी 
उस मृतक के लिए 
जो अभी उसके पेट में ही था 
                                     बग़दाद, 1990                             
                    * * *

एक तस्वीर 
(न्यूयार्क टाइम्स के मुखपृष्ठ पर एक इराकी लड़के की)

वह बैठा था 
ट्रक के एक सिरे पर 
(आठ या नौ साल का?)
अपने परिवार से घिरा हुआ 
उसके पिता,
माँ,
और पांच भाई-बहन 
सोए पड़े थे 
और उसका सर 
अपने हाथों में गहरे धंसा हुआ था 
दुनिया के सारे बादल 
इंतज़ार कर रहे थे 
उसकी आँखों की कोर पर 
लम्बे शख्स ने पसीना पोंछा 
और खोदना शुरू किया 
सातवीं कब्र 
                                       न्यूयार्क, सितम्बर 2006 
                    * * *

गैरहाजिरी 

जब तुम चली जाती हो 
मुरझा जाती है यह जगह 
मैं इकट्ठा करता हूँ 
तुम्हारे होंठों से छितराए गए बादलों को 
लटका देता हूँ उन्हें 
अपनी स्मृति की दीवार पर 
और इंतज़ार करता हूँ 
एक और दिन का 
                    * * * 

दृश्य 

समुन्दर टिकाता है अपना सर 
क्षितिज की तकिया पर 
और एक झपकी लेने लगता है 
मैं सुन सकता हूँ साँसें लेते 
उसकी नीलिमा को 
जब अपनी उँगलियों के पोरों से सूरज  
चूमता है उसकी त्वचा 
आसमान को जलन होती है 
                                       बेरुत, अप्रैल 2003                
                    * * * 

चालना 

दो चलनियां हैं 
मेरी आँखें 
लोगों के ढेर में से 
चालती हुईं 
तुम्हें 
                                       काहिरा, अगस्त 2003                                     
                     * * *  

मायाजाल॥

तुम्हारे होंठ
जैसे एक गुलाबी तितली 
उड़ती हुई 
एक लफ्ज़ से 
दूसरे लफ्ज़ को 
और मैं भागता हुआ उनके पीछे 
खामोशी के 
बगीचे में 
                                       काहिरा, जून 2003 
                    * * *  

शोध 

समुन्दर 
एक शब्दकोष है नीलिमा का 
जिसे बहुत लगन से 
पढ़ा करता है सूरज, 
तुम्हारी देंह भी
शब्दकोष है 
मेरी चाहतों की 
जिसके पहले अक्षर में ही 
बीत जानी है ज़िंदगी !
                                    बेरुत, अप्रैल 2003 
                    * * *  

17 comments:

  1. चालना से एक कविता याद आई। बढिया!

    ReplyDelete
  2. एक तस्वीर ... सिहरन सी दौड़ गई शरीर में .. आत्म-विभोर करने वाली रचनाओ के रचनाकार को नमन .. अनुवादित करने वाले मनोजजी का वंदन ..आभार..अभिनन्दन !!

    ReplyDelete
  3. बढिया प्रस्तुति।आभार।

    ReplyDelete
  4. आप अनुदित और प्रकाशित करने की अनुमति देने के लिए कवि के आभारी हैं और हम आपके आभारी हैं इन कविताओं को हम तक पहुँचाने के लिए!

    ReplyDelete
  5. यहाँ आ कर मेरा दिन बन जाता है. एक उपकार ही है हम जैसों पर ये.

    ReplyDelete
  6. यहाँ आ कर मेरा दिन बन जाता है. एक उपकार ही है हम जैसों पर ये.

    ReplyDelete
  7. रूह तक जाती हुई एक एक पंक्ति ..आभार आपका.

    ReplyDelete
  8. Great poems and translation too.

    ReplyDelete
  9. जो एक कफ़न बुन रही थी
    उस मृतक के लिए
    जो उसके पेट में था !

    अच्छी दमदार कवितायेँ ! शुक्रिया मनोज जी !

    ReplyDelete
  10. jo aap hame bahut hi sahaj me uplabhd karva rahe ho vo hame bahut si koshish ke bad bhi nahi mil sakta.ek mahan kavi ke rubru karvane ke liye aabhar.

    ReplyDelete
  11. Thanks Manoj for introducing us to such a great poet.Really Nice poems.

    ReplyDelete
  12. बहुत अच्छी कवितायेँ एक बार फिर से |

    ReplyDelete
  13. बहुत बहुत बढ़िया..............
    शुक्रिया आपका...
    really thanks a ton..

    ReplyDelete
  14. let there be no war
    let there be no war

    ReplyDelete
  15. दिल को छू जाती हैं ये कवितायें...आभार!

    ReplyDelete
  16. ek yuva rachnakar ka marg darsan karti hai ye kabitaye iske liye aapka abhaari hai yuva racnakar........sir ji thanks alot

    ReplyDelete

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...