मरम अल-मसरी की दो कविताएँ...
मरम अल-मसरी की दो कविताएँ
(अनुवाद : मनोज पटेल)
याद है
तुम्हारे दस्तक दिए बिना ही
मैनें खोल दिया था अपना दरवाज़ा...
कितनी बुद्धू थी मैं
मुझे लगा था कि तुमने कुछ नहीं चुराया
सिगरेट और किताबों के सिवाय.
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अपने स्वादिष्ट फल से
मैं रोशन करती हूँ
खुद तक आने वाला रास्ता.
तुम्हारे नासमझ परिंदों को
पसंद है
बासी रोटी.
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Manoj Patel, 9838599333
EXCELLENT!!!!!!!!
ReplyDeleteTHANKS.
manoj..kamaal ka kaam kar rahe hain aap..maine apne facebook account pe Padhte-Padhte ko saraaha hai..aur kavita premi doston ko aagrah kiya hai ki wo ek baar yahaan zaroor padhaare...pichhle kuchh din se hi pata chala yahaan ka pata..tab se randomly iska koi bhi panna khol ke baitth jaata hoon aur din ban jaata hai...kamaal kamaal kavitaayein..dil..dimaag..aatma ko chhooti hui...jeeyo aur khoob achha kaam karte raho..
ReplyDeleteतुम्हारे दस्तक दिए बिना ही मैनें खोल दिया था अपना दरवाजा......बहुत खूब सर जी......!!!
ReplyDeleteबहुत सुंदर. " कितनी बुद्धू थी मैं / मुझे लगा था कि तुमने कुछ नहीं चुराया / किताबों और सिगरेटों के सिवाय." असल चोरी के बारे मैं कोई चर्चा ही नहीं, वरना दस्तक के बिना दरवाज़ा कैसे खोल दिया जाता?
ReplyDeletewow lajwabbbbb
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