अडोनिस के संग्रह, 'देंह की शुरुआतें, समुन्दर के अंत' से कुछ कविताएँ...
अपने युग को तोड़कर दो हिस्सों में होने वाला हूँ मैं :
गुलाब छोड़ देता है अपनी फुलवारी
उससे मिलने के लिए
पतझड़ का सूरज नंगा है,
कमर में बादलों के एक धागे के सिवा कुछ भी नहीं उसके बदन पर
ऐसे ही आता है प्रेम
उस गावं में जहां मेरा जन्म हुआ
~ ~
तुम्हारे मुंह की रोशनी,
कोई लालिमा बराबरी नहीं कर सकती इसके क्षितिजों की
तुम्हारा मुंह,
रोशनी और परछाईं एक गुलाब की
~ ~
मैं जागता हूँ और सुबह से पूछता हूँ तुम्हारे बारे में : क्या तुम जाग गई हो ?
मैनें तुम्हारा चेहरा बना हुआ देखा घर के चारो ओर
पेड़ों की डाली पर मैं अपने कन्धों पर लिए हुए था सुबह :
वह आ गई
या मुझे ललचा रहा है ख्वाब ?
मैनें डालियों पर गिरी
ओस से पूछा, सूरज से पूछा, क्या उन्होंने पढ़ा है
तुम्हारे क़दमों को ? तुमने कहाँ छुआ था दरवाज़ा ?
गुलाब और पेड़ कैसे चलते हैं तुम्हारे साथ-साथ ?
मेरा खून वहां, मेरी देंह यहाँ -- कागज़ के पन्ने
चिंगारियों द्वारा घसीटे जाते उजाड़ दुनिया में
~ ~
मैं कल्पना करता हूँ कि मेरा प्रेम
साँसे भर रहा है सारी चीजों के फेफड़े से
और मुझ तक आता है यह
जैसे कविता
जैसे गुलाब, जैसे मिट्टी
आहिस्ता से बोलता है सबसे
और धीरे से देता है अपनी खबर कायनात को
जैसे हवा करती है और सूरज
जब वे चीरते हैं कुदरत की छाती
या दिन की रोशनाई गिराते हैं
धरती की किताब पर
~ ~
(अनुवाद : मनोज पटेल)
अली अहमद सईद असबार अडोनिस (अनुवाद : मनोज पटेल)
yahan aaker mann khush ho jata hai
ReplyDeleterashmi ji se sahamat ... sundar prastuti.
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