Friday, July 1, 2011

मुझे साहिल से नहीं समुन्दर से प्यार है


अडोनिस की कविता 'मौत का जश्न मनाना' आप इस ब्लॉग पर पढ़ चुके हैं. आज उसी सिलसिले से एक और कविता - 'बचपन का जश्न मनाना'... 


बचपन का जश्न मनाना : अडोनिस 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

हवा भी बनना चाहती है 
तितलियों से खींची जाने वाली 
एक गाड़ी. 

मुझे याद है दीवानापन 
पहली बार सर टिकाता हुआ 
दिमाग के तकिए पर. 
तब मैं बात कर रहा था अपनी देंह से 
और मेरी देंह एक खयाल थी 
जिसे लिक्खा मैनें लाल रोशनाई से.

लाल सबसे सुन्दर सिंहासन है सूरज का 
और बाक़ी सभी रंग 
इबादत करते हैं लाल दरियों पर.

रात एक और कंदील है. 
हर डाली पर एक बांह,
अन्तरिक्ष में भेजा गया एक सन्देश 
हवा की देंह से प्रतिध्वनित. 

सूरज जिद करके पहनता है कुहासे का कपड़ा 
मुझसे मिलता है जब वह : 
क्या मुझे फटकारती है रोशनी?

ओह, मेरे गुजरे हुए दिनों  --
वे चला करते थे अपनी नींद में 
और मैं सहारा लिया करता था उनका. 

प्रेम और स्वप्न दो कोष्ठक हैं 
जिनके बीच, मैं रखता हूँ अपनी देंह 
और खोज निकालता हूँ दुनिया को. 

कई बार 
मैनें हवा को उड़ते देखा घास के दो पैरों के सहारे 
और सड़क को नाचते देखा हवा से बने पैरों पर. 

फूल हैं मेरी इच्छाएं 
दागदार करतीं मेरे समय को. 

मैं जख्मी हो गया था जल्द ही,
और जल्द ही जान गया कि 
जख्मों से ही बना हूँ मैं. 

मैं अनुसरण करता हूँ उस बच्चे का 
जो अब भी चलता है मेरे भीतर.

वह खड़ा है रोशनी की सीढ़ियों पर 
सुस्ताने के लिए किसी कोने की तलाश में 
और फिर से पढ़ने के लिए रात का चेहरा. 

अगर चंद्रमा कोई घर होता,
मेरे पैर इन्कार कर देते इसकी चौखट छूने से. 
उन्हें अपना लिया है धूल ने 
मुझे मौसमों तक ले जाते हुए. 

मैं चलता हूँ,
हवा में किए एक हाथ, 
और दूसरे से सहलाता उन जूड़ों को 
जो मेरे खयालों में हैं. 

एक सितारा 
अन्तरिक्ष के मैदान में एक पत्थर भी तो है. 

सिर्फ वही 
बना सकता है नए रास्ते 
जो जुड़ा हुआ है क्षितिज से. 

चंद्रमा, एक बुजुर्ग इंसान 
रात उसका आसन है 
और रोशनी उसकी छड़ी.

क्या कहूंगा देंह से जिसे छोड़ आया था मैं 
उस घर के मलबे में 
जिसमें मेरा जन्म हुआ?
कोई भी बयान नहीं कर सकता मेरे बचपन का 
सिवाय उन सितारों के जो टिमटिमाया किए उसके ऊपर 
और जिनके क़दमों के निशान हैं 
साँझ की पगडंडी पर. 

अब भी मेरा बचपन जन्म ले रहा है 
रोशनी की हथेलियों पर 
मैं नहीं जानता उनका नाम 
और वे नामकरण करतीं हैं मेरा. 

उस नदी से उसने एक आईना बनाया 
और उससे पूछा अपने गम के बारे में. 
अपने दुख से उसने बारिश बनाई 
और बराबरी कर ली बादलों की. 

तुम्हारा बचपन एक गाँव है.
कभी नहीं पार कर पाओगे इसकी सरहदों को 
चाहे जितनी दूर चले जाओ तुम.  

उसके दिन झील हैं,
और तैरती हुई चीजें हैं स्मृतियाँ. 

तुम जो उतर रहे हो 
अतीत की पहाड़ियों से,
फिर कैसे चढ़ पाओगे उन पर,
और भला क्यों?

वक़्त एक दरवाजा है 
जिसे मैं नहीं खोल पाता. 
मेरा जादू पुराना पड़ चुका है,
और नींद में हैं मेरे गीत. 

मेरा जन्म हुआ था एक गाँव में,  
गर्भाशय की तरह छोटा और रहस्यमय.
मैनें कभी नहीं छोड़ा उसे.
मुझे साहिल से नहीं समुन्दर से प्यार है. 
                    :: :: :: 
अली अहमद सईद असबार 'अडोनिस' 

8 comments:

  1. ye to bas kamal hai ... jadu karti kavita.. Manoj Patel.. hardik badhai.

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  2. अडोनिस की यह कविता बहुआयामी है। कई-कई अर्थ-द्वार बजाती-खटखटाती, झलकाती और खोलती हुई। बिम्‍ब और दृश्‍य तो एक से एक। प्राय: सब नये ढाले हुए। सबसे बड़ी यह कि इतना प्रयोग-किल्‍लोल करते दिखते शब्‍द संवेदना के स्‍तर पर कहीं छूंछे नहीं रह गये, मार्मिकता से भरे हुए हैं सर्वत्र। आभार और बधाई...

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  3. sirf vahi bana sakta hai naye raste jo kshitiz se juda hua hai----sundar baav purna rachana hai...bahut pasand aayi

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  4. बहुत शानदार कविता ! शब्दों की अद्भुत मीनाकारी की है कवि ने ! धन्यवाद मनोज जी !

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  5. इतना सुन्दर अनुवाद है कि लगता ही नहीं कि यह अनुवाद है. जैसे कोई फल या पौधा इतना सुन्दर और पूर्ण हो जाता है कि लगता है कि वह आर्टिफिशियल है ठीक यह अनुवाद भी उतना ही परफेक्ट है. क्या खूब है: "सूरज जिद करके पहनता है कुहासे का कपड़ा/ मुझसे मिलता है जब वह/क्या मुझे फटकारती है रोशनी?"

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