अली अहमद सईद असबार अडोनिस के संग्रह, 'देंह की शुरुआतें, समुन्दर के अंत' से कुछ और कविताएँ...
हर दिन हम पहुँचते हैं अपनी देंहों के पास --
पलटते हैं अपने दिन
उनकी किताबों में
एक फल
मगर तोड़ना एक मुल्क है
जिसकी कोई सरहद नहीं
~ ~
जब हम मिलें जहां कहीं भी हमें ले जाएं हमारे पैर शहरों में
या खेतों में खामोशी को
दर्ज करने देना अपनी जख्मी बात
प्रिय, क्या तुम चाहती हो ऐसा चेहरा जो रोशन कर दे आसमान को ? तो फिर
अपनी आँखों को बनने दो एक घर मेरे चेहरे के लिए मुझे थाम लो -- बातें करो तुम्हारी आँखों और हाथों में, मैं नहीं महसूस कर पाता अपनी देंह की लय
जब तक तुम बोलती नहीं
~ ~
हर रोज
बातचीत होती है मेरे चेहरे और आईने में
प्रेम को पढ़ने के लिए नहीं
न ही अपने हुलिए में किसी बदलाव को या
अपनी निगाह में मौत के हल्केपन को पढ़ने के लिए
बल्कि अपने प्रेम को सिखलाने के लिए
की कैसे आईने से पूछा जाए : मैं क्यों नहीं समझ पाता
अस्तित्व के रात जैसे स्वभाव को, इसकी और अपनी अज्ञात बातों के सार को ?
क्यों नहीं समझ पाता अपनी ज़िंदगी को
सिवाय तब
जबकि देख रहा होता हूँ अपना चेहरा ?
~ ~
(अनुवाद : मनोज पटेल)
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