नाजिम हिकमत की 'रात 9 से 10 के बीच की कविताएँ' से कुछ कविताएँ आप यहाँ पहले पढ़ चुके हैं. आज उसी सिलसिले से कुछ और कविताएँ...
रात 9 से 10 के बीच लिखी गई कविताएँ - 2 : नाजिम हिकमत
रात 9 से 10 के बीच लिखी गई कविताएँ - 2 : नाजिम हिकमत
(अनुवाद : मनोज पटेल)
(पत्नी पिराए के लिए)
25 सितम्बर 1945
नौ बज गए हैं.
चौराहे का घंटाघर बजा रहा है गजर,
बंद ही होने वाले होंगे बैरक के दरवाजे.
कैद कुछ ज्यादा ही लम्बी हो गई इस बार :
आठ साल...
ज़िंदगी उम्मीद का ही दूसरा नाम है, मेरी जान.
ज़िंदा रहना भी, तुम्हें प्यार करने की तरह
संजीदा काम है.
* * *
26 सितम्बर 1945
उन्होंने हमें पकड़कर बंदी बना लिया,
मुझे चारदीवारी के भीतर,
और तुम्हें बाहर.
मगर ये तो कुछ भी नहीं.
इससे भी बुरा तो तब होता है
जब लोग -- जाने या अनजाने --
अपने भीतर ही जेल लिए फिरते हैं...
ज्यादर लोग ऎसी ही हालत में हैं,
ईमानदार, मेहनतकश, भले लोग
जो उतना ही प्यार किए जाने के काबिल हैं,
जितना मैं तुम्हें करता हूँ.
* * *
30 सितम्बर 1945
तुम्हें याद करना खूबसूरत है,
और उम्मीद देता है मुझे,
जैसे सबसे खूबसूरत गीत को सुनना
दुनिया की सबसे मधुर आवाज़ में.
मगर सिर्फ उम्मीद ही मेरे लिए काफी नहीं.
अब गीत सुनते ही नहीं रहना चाहता मैं --
गाना चाहता हूँ उन्हें.
* * *
"..........जो उतना ही प्यार किए जाने के काबिल हैं,
ReplyDeleteजितना मैं तुम्हें करता हूँ. "
".....मैं --
गाना चाहता हूँ उन्हें. "
Waah!
''जिंदा रहना भी तुम्हें प्यार करने की तरह है ''.....!!!
ReplyDelete...............zindaa rahnaa bhi tumhen pyaar karne ki tarah sanjeeda kaam hai........adbhut.........
ReplyDeleteतुम्हें याद करना खूबसूरत है और उम्मीद देता है मुझे..... बहुत सुंदर कविता...
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