Thursday, July 21, 2011

निज़ार कब्बानी : जब तुम आई किसी कविता की तरह


निज़ार कब्बानी की कविता 'सौ प्रेम पत्र' से कुछ और कविताएँ... 











सौ प्रेम पत्र  : निज़ार कब्बानी  
(अनुवाद : मनोज पटेल)

मार्च की उस सुबह जब चलकर तुम मेरे पास आई 
किसी कविता की तरह 
धूप आई तुम्हारे साथ और बहार आई. 
हरे हो गए 
मेरी मेज पर रखे सारे कागज़ 
और पीने के पहले ही खाली हो गया 
सामने रखा काफी का कप, 
तुम्हें देखते ही 
दीवार पर लगी पेंटिंग के 
दौड़ते हुए घोड़े 
छोड़ कर मुझे 
भाग गए तुम्हारी तरफ. 
:: :: :: 

मैं कोई बादशाह नहीं हूँ, 
न ही किसी शाही खानदान का, 
मगर यह ख्याल कि तुम मेरी हो 
मुझे एहसास कराता है,
कि जैसे पांचो महाद्वीपों पर हो मेरी सत्ता,
जैसे बारिश हो मेरे काबू में, 
और हवा के रथ मेरे वश में हों,
जैसे सूरज के ऊपर 
हजारों एकड़ जमीन पर हो मेरा कब्जा, 
जैसे उन लोगों पर हो मेरी हुकूमत 
जो कभी किसी के अधीन नहीं रहे, 
और लगता है मैं खेल रहा होऊँ सौर मंडल के सितारों से 
जैसे सीपियों से खेलता है कोई बच्चा. 
मैं कोई बादशाह नहीं हूँ 
न ही होना चाहता हूँ;
मगर जब महसूस करता हूँ 
अपनी हथेलियों पर तुम्हें सोते हुए 
लगता है 
रूस का जार हूँ मैं, 
और फारस का शाह. 
:: :: :: 

6 comments:

  1. लोग कितनी सरलता से अपने मन की बात कह देते है ? प्रेम कविताए शायद इसीलिए इतनी पसंद की जाती है ..निजार रब्बानी की कविताए अपनी सी लगती है .

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  2. प्रेम के बुलंद अहसास ! क्या कहने कब्बानी साहब के ! आभार मनोज जी !

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  3. जब हम रुकते हैं साथ,
    ये दौड़ती हुई दुनिया लगती है बड़ी अजीब और मैं गरीब
    दुनिया का सबसे गरीब बाशिंदा
    गरीबी, जो कभी अमीर होने की चाहत नहीं रखती.

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  4. shandar. laga isse behtar kya hoga.. prem se behtar sachmuch kuchh nhi

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  5. हर कविता अलग, हर बार नया । प्रेम के कितने ठिकाने हैं निजार कब्बानी की कविताओं में ! अपूर्व !

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  6. कब्बानी जी की कविताएँ मन को मोह लेती हैं..... आपका आभार ... इतनी खूबसूरत कविता पढ़वाने के लिए...

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