रोक डाल्टन की एक कविता...
अब तुम समझ सकती हो : रोक डाल्टन
(अनुवाद : मनोज पटेल)
अब समझ सकती हो, जो कुछ भी बनने की कामना करती थी तुम
कालेज की बातचीत में
क्यों एक बेवतन शख्स की महबूब बन बैठी
तुम जो हवाई जहाज से सैर करने जा रही थी यूरोप की
तीन या चार इज्जतदार बुजुर्गों से मिली विरासत की बिना पर
तुम जो बैठी होती हो एक लम्बी लिमोजिन गाड़ी में
फर के गमकते कोट और चांदी के बड़े-बड़े कंगन पहने हुए
मगर सबसे बढ़कर
पूरे शहर में सबसे शानदार आँखों वाली तुम
जो सोई पड़ी हो इस वक़्त
इस गरीब तन्हा इंसान की बाहों में.
मुझे दिख रहा है चमकता हुआ नन्हा क्रास तुम्हारी छाती पर
और दीवार पर मार्क्स की अपनी तस्वीर
और लग रहा है कि सारी चीजों के बावजूद
खूबसूरत है ज़िंदगी.
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निसंदेह खूबसूरत है ज़िंदगी.... और आपका चयन भी.
ReplyDeleteसुन्दर..अति सुन्दर...
ReplyDeleteउम्दा .. जिंदगी के हसीन लम्हे और उनकी यादे जिंदगी को हसीन बनाती है .. सुन्दा कविता का सुन्दर अनुवाद
ReplyDeleteक्रास जो जुल्मो-सितम और शहादत का प्रतीक है और मार्क्स की तस्वीर क्रांति के विचार का ,का सुन्दर प्रयोग हुआ है इस कविता में ! आभार मनोज जी !
ReplyDeleteइस खिडकी से विश्व साहित्य का आलोक हम तक पहुंचाने के लिए शुक्रिया.
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