Sunday, May 13, 2012

रोक डाल्टन : अब नहीं खुला करता बगीचे का फाटक

रोक डाल्टन की एक और कविता...  

 
संगीतकार मारियानो की मौत : रोक डाल्टन 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

अब परिंदे नहीं हैं वहां, जहां पियानो पड़ा रहता था इंतज़ार में 
बस एक बेनाम सी सिहरन की आकृतिहीन स्मृतियाँ. 

अब धूल झड़ रही है 
अपने रास्ते में आबनूस के उस बुत को पाए बगैर. 

अब नहीं खुला करता बगीचे का फाटक. 

कभी-कभी सोचता हूँ मैं 
कि हमारे मर जाने पर क्या मकान भी नहीं सहते 
विधवाओं जितनी ही तकलीफ.   

कम अज कम तब, जब किसी ने गाया हो 
या रची हों मीठी धुनें उनके भीतर 
मारियानो की तरह... 
                    :: :: :: 
रोके दालतोन 

6 comments:

  1. "कभी-कभी सोचता हूं
    कि हमारे मर जाने पर क्या मकान भी नहीं सहते
    बिधवाओं जितनी ही तकलीफ़."
    आखिरी तीन पंक्तियों के साथ मिलकर अद्भुत काव्यानंद की वाहक बन जाती हैं. बधाई.

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  2. बहुत अच्छी कविता...न होने के एहसास को ब्यक्त करती हुई.....आभार....!!

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  3. सुंदरता से लिखी मार्मिक कविता ! सुंदर अनुवाद !

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  4. तभी मृतकों की आत्माएं मकानों में गूंजती महसूस होती हैं जो उनके बने रहने का अहसास कराती रहती हैं.

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