ज़िबिग्न्यू हर्बर्ट की एक और कविता...
मछली : ज़िबिग्न्यू हर्बर्ट
(अनुवाद : मनोज पटेल)
मछली की नींद कल्पना से परे है. एक तालाब के सबसे अँधेरे कोने में भी, जलबेंत के बीच, उनका आराम एक जागरण होता है: वे अनंतकाल तक एक ही मुद्रा अपनाए रहती हैं; और उनके बारे में कुछ कहना बिल्कुल असंभव है: यह कि उनका सर तकिए के आगोश में चला गया है.
उनके आंसू भी निर्जन में रूदन जैसे होते हैं--असंख्य.
मछलियाँ अपनी हताशा को किसी भाव द्वारा नहीं व्यक्त कर पातीं. यह उस भोथरे चाकू को सही ठहराता है जो उनकी पीठ पर उतरकर उनकी चमड़ी के सलमे-सितारे उजाड़ देता है.
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कवि की संवेदनशीलता के अनुपम परिचय सी अनूठी कविता!
ReplyDeleteबेहतरीन कविता. अनुवाद भी बेहतरीन. शुक्रिया.
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति |
ReplyDeleteबधाई स्वीकारें ||
मछली के शयन और रुदन पर इस तरह सोचना कविता को बहुत संवेदनशील और व्यापक बना देता है.
ReplyDeleteकमाल है मनोज भईया. अनुवाद नहीं, मूल कविता के तरह पढ़ गया, और शानदार लगी.
ReplyDeleteकोई भी अपनी हताशा को सही सही व्यक्त नहीं कर पाता . फिर तमाम कलाएं हताशा को सही सही व्यक्त करने का ज़िम्मा उठाती हैं . यह हताशा का अद्भुत सकारात्मक पक्ष है .
ReplyDeleteati marmik! aur shrikant jee ki baat se poori tarah sahmat!
ReplyDeleteati marmik! aur shrikant jee ki baat se poori tarah sahmat!
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