Thursday, May 17, 2012

अफ़ज़ाल अहमद सैयद की कविता

अफजाल अहमद सैयद की एक और कविता...  

 
नज़्म : अफ़ज़ाल अहमद सैयद 
(लिप्यंतरण : मनोज पटेल) 

तुम आ जाती हो 
हर रोज़ नए लिबास में 
अपनी खूबसूरत आँखों को 
एक नई ज़बान सिखाने के लिए 

तुम्हारी झुकी हुई गर्दन 
और शाने के दरमियान 
मुझे अपने दिल के लिए 
एक नया शिकंजा मिल जाता है 

खिड़की से बाहर देखते हुए 
तुम्हारी आँखें 
मेरे चेहरे पर ठहर जाती हैं 

नया जुमला बोलते हुए 
मेरी ज़बान 
तुम्हारे दांतों के नीचे आ जाती है 

शायद 
हम उस खिड़की से 
समुंदर की तरफ 
मलवा फ़रोशों के हुजूम को 
(जो एक जहाज़ छोड़ रहा है) 
नज़रअंदाज़ करते हुए 
दूर तक साथ चल सकते हैं 

शायद हम उस पुल से गुज़र सकते हैं 
जिसे मख्दूश क़रार दे दिया गया है 
और उन बेंचों पर बैठ सकते हैं 
जिनका रंग अभी नहीं सूखा 
               :: :: :: 

शाने  :  कंधे 
मख्दूश  :  खतरनाक 

5 comments:

  1. बहुत खूबसूरत और उतनी ही मार्मिक कविता ! कमाल है अफजाल का ! आभार मनोज जी ! अनुवाद बहुत सुंदर है !

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  2. शायद हम उस पुल से गुज़र सकते हैं
    जिसे मख्दूश करार दिया गया है..
    और उन बेंचों पर बैठ सकते हैं
    जिनका रंग अभी नहीं सूखा..
    क्या खूब है.. बधाई और शुक्रिया मनोज जी..

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  3. यादों का रंग कभी नहीं सूखता ...!!
    सुंदर प्रस्तुति ...!!
    शुभकामनायें ...!!

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  4. स्त्री पुरुष के रिश्ते की हकीकत दर्शाती सुन्दर कविता

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  5. मज़ा आ गया पढ़ कर. शब्द नहीं मिल रहे कविता और अनुवाद की प्रसंशा के लिए.बहुत बहुत शुक्रिया मनोज भाई.

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