रॉबर्ट ब्लाई की एक और कविता...
स्वर्गीय पिता का फोन : रॉबर्ट ब्लाय
(अनुवाद : मनोज पटेल)
पिछली रात मैंने सपना देखा कि मेरे पिता ने फोन किया हमें.
वे फंसे हुए थे कहीं. हमें
बहुत देर लगी तैयार होने में, मुझे नहीं पता क्यों.
कंपकंपाती बर्फीली रात थी; सड़कें थीं लम्बी और काली.
आखिरकार पहुँच गए हम छोटे से कस्बे बेलिंगहम में.
वे खड़े थे बिजली के एक खम्भे के पास सर्द हवाओं के बीच,
बर्फ उड़ रही थी फुटपाथ से लगकर.
मैंने गौर किया वे पहने हुए थे असमतल किस्म के पुरुषों के जूते.
लगभग चालीस की उम्र के, ओवरकोट पहने हुए वे पी रहे थे सिगरेट.
हमें इतनी देर क्यों लगी निकलने में? शायद
वे कभी छोड़ गए थे हमें कहीं, या मैं ही बस भूल गया था
कि वे सर्दियों में अकेले थे किसी कस्बे में ?
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ये अनुभव संकेत होते हैं... और इन संकेतों का मिलते रहना जीवन मृत्यु की सूक्ष्म विभाजन रेखा को पाटता सा प्रतीत होता है!
ReplyDeleteआभार इस कविता के लिए!
excellent ...
ReplyDeletenice poem with deep sense.........
पिता स्वप्न में प्रतीक्षारत दिखाई देते हैं यानी उनके मन का एक अंश परिवार में बसा रह गया.मृत्यु स्मृतियों को धुंधला नहीं करती बल्कि कल्पना के मेल से उन्हें और भी धारदार बना देती है.
ReplyDelete101….सुपर फ़ास्ट महाबुलेटिन एक्सप्रेस ..राईट टाईम पर आ रही है
ReplyDeleteएक डिब्बा आपका भी है देख सकते हैं इस टिप्पणी को क्लिक करें