ऊलाव हाउगे की एक और कविता...
तीर और कमान के साथ कई वर्षों का अनुभव : ऊलाव एच. हाउगे
(अनुवाद : मनोज पटेल)
ठीक बीचोबीच वह जो काला बिंदु है
वहीं निशाना लगाना है तुमको,
ठीक वहीं, जहां जाकर
गड़ेगा तीर कांपता हुआ!
मगर ठीक वहीं तुम नहीं लगा पाते निशाना.
तुम करीब हो, और करीब, नहीं,
काफी करीब नहीं.
इसलिए जाओ तीरों को फिर से ले आने के लिए,
वापस आओ, फिर से कोशिश करो.
काला बिंदु चिढ़ाता है तुम्हें.
जब तक तुम समझ नहीं जाते तीर को
जो गड़ा है वहां कांपता हुआ:
यहाँ भी है एक मध्य-बिंदु.
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क्या बात है ! निशाने को सब देखते हैं , तीर के कांपने को नहीं .
ReplyDeleteबहुत सुंदर ! काँपते तीर मे भी है एक मध्य बिन्दु ! उसे कोई नहीं देखता !
ReplyDeleteमुझे राम द्वारा रावण की नाभि में तीर मारने का दृश्य याद आता है.यहाँ किसी करीबी से छल करने का भाव है.
ReplyDeleteव्यवहारिक अनुभव को कविता के धरातल पर अमर कर गयी कलम!
ReplyDeleteवाह!
kya baat hai..darshan grahya hai..
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