Friday, May 18, 2012

ज़िबिग्न्यू हर्बर्ट : मछली

ज़िबिग्न्यू हर्बर्ट की एक और कविता...    

 
मछली : ज़िबिग्न्यू हर्बर्ट 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

मछली की नींद कल्पना से परे है. एक तालाब के सबसे अँधेरे कोने में भी, जलबेंत के बीच, उनका आराम एक जागरण होता है: वे अनंतकाल तक एक ही मुद्रा अपनाए रहती हैं; और उनके बारे में कुछ कहना बिल्कुल असंभव है: यह कि उनका सर तकिए के आगोश में चला गया है. 

उनके आंसू भी निर्जन में रूदन जैसे होते हैं--असंख्य. 

मछलियाँ अपनी हताशा को किसी भाव द्वारा नहीं व्यक्त कर पातीं. यह उस भोथरे चाकू को सही ठहराता है जो उनकी पीठ पर उतरकर उनकी चमड़ी के सलमे-सितारे उजाड़ देता है. 
                                                            :: :: ::

8 comments:

  1. कवि की संवेदनशीलता के अनुपम परिचय सी अनूठी कविता!

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  2. बेहतरीन कविता. अनुवाद भी बेहतरीन. शुक्रिया.

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  3. सुन्दर प्रस्तुति |
    बधाई स्वीकारें ||

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  4. मछली के शयन और रुदन पर इस तरह सोचना कविता को बहुत संवेदनशील और व्यापक बना देता है.

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  5. कमाल है मनोज भईया. अनुवाद नहीं, मूल कविता के तरह पढ़ गया, और शानदार लगी.

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  6. कोई भी अपनी हताशा को सही सही व्यक्त नहीं कर पाता . फिर तमाम कलाएं हताशा को सही सही व्यक्त करने का ज़िम्मा उठाती हैं . यह हताशा का अद्भुत सकारात्मक पक्ष है .

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  7. ati marmik! aur shrikant jee ki baat se poori tarah sahmat!

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  8. ati marmik! aur shrikant jee ki baat se poori tarah sahmat!

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