Monday, June 18, 2012

ऊलाव हाउगे : शंख

नार्वे के कवि ऊलाव हाउगे की एक और कविता...  

 
शंख : ऊलाव हाउगे 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

तुम एक घर बनाते हो अपनी आत्मा के लिए 
और सितारों की रोशनी में 
इधर-उधर बहा करते हो शान से 
घर को अपनी पीठ पर लादे 
किसी घोंघे की तरह. 
कोई ख़तरा सामने पड़ने पर 
तुम सरक जाते हो भीतर 
और सुरक्षित हो जाते हो 
अपनी 
सख्त खोल के पीछे. 

और जब तुम नहीं रहोगे, 
तब भी 
घर जिंदा रहेगा तुम्हारा, 
एक वसीयतनामा 
तुम्हारी आत्मा की सुन्दरता का. 
और भीतर 
बहुत गहरे से कहीं 
गाएगा तुम्हारे अकेलेपन का समुन्दर. 
                    :: :: :: 

6 comments:

  1. "एक वसीयतनामा..."

    "और जब तुम नहीं रहोगे,
    तब भी घर जिंदा रहेगा तुम्हारा,
    और भीतर बहुत गहरे से कहीं
    गाएगा तुम्हारे अकेलेपन का समुन्दर." सुंदर भाव हैं, सच के क़रीब भी.

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  2. वाह.............
    बहुत सुन्दर...
    शंख को देख कहाँ ख़याल आता है कि ये किसी मृत जीव का हिस्सा है....

    बहुत बढ़िया रचना.
    अनु

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  3. सच में मरने के बाद इतनी सुन्दर वस्तु संसार को वसीयत में कम ही जन्तु दे पाते हैं. प्राय: वनस्पति ही यह करती है.
    घुघूतीबासूती

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  4. .
    बहुत गहरे कहीं गाएगा
    तुम्हारे अकेलेपन का समुंदर !

    जिसे तुंछोड़ जाओगे अपने जानेके बाद ! बिकुल सच !
    आभार !

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  5. सपने में चलती कविता जहाँ घर आत्मा से जुडा है और मृत्यु के बाद अकेलेपन का समंदर लहराएगा.

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  6. सच...कवि कालप्रवासी होता है.बहुत अदभुत रचना.

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