Sunday, June 10, 2012

ऊलाव हाउगे की दो कविताएँ

ऊलाव हाउगे की दो कविताएँ...  

 
ऊलाव हाउगे की दो कविताएँ 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

युद्ध-काल से 

एक गोली उछली मेरे फर्श पर. 
मैंने तौला उसे अपने हाथ में. 
वह आई थी खिड़की और 
लकड़ी की दो दीवारों से होते हुए. 
मैंने शक नहीं किया कि जान ले सकती थी वह. 
               :: :: :: 

तीर और गोली 

तीर आया गोली से पहले. 
इसलिए मुझे पसंद है तीर. 
मीलों तक जाती है गोली. 
किन्तु भयानक होता है उसका धमाका. 
उस समय मुस्कराता है तीर. 
               :: :: :: 

4 comments:

  1. "मैंने शक नहीं किया कि जन ले सकती थी वह "............... कभी-कभी शक करने की गुंजाइश मिल जाती है !

    गोली बहुत शोर करती है और तीर मुसकुराता है ......... किसी कि जन लेते वक़्त !

    अच्छी कवितायें ,अच्छा अनुवाद !

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  2. बेहतरीन.................................

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  3. गागर में सागर.....

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  4. तीर और गोली दोनों मारक हैं और उनकी मुस्कान जानलेवा है.

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