ज़िबिग्न्यू हर्बर्ट की एक और कविता...
दो बूँदें : ज़िबिग्न्यू हर्बर्ट
(अनुवाद : मनोज पटेल)
जब जंगल जल रहे हों, तो गुलाबों के लिए शोक करने का वक़्त कहाँ.
- जूलियस स्वेवस्की
जंगलों में आग लगी थी --
फिर भी उन्होंने
बाहों में भर लिया था अपनी गरदनों को
गुलदस्तों की तरह
लोग भागे पनाहगाह की तरफ --
उसने कहा ऐसे हैं मेरी पत्नी के बाल
कि छिपा जा सकता है उनकी गहराइयों में
एक कम्बल के नीचे
वे फुसफुसाते रहे निर्लज्ज शब्द
वही प्रेमियों का कीर्तन
जब स्थिति ज्यादा बिगड़ गई
वे कूद पड़े एक-दूसरे की आँखों में
और मूँद लिया उन्हें जोर से
इतनी जोर से कि उन्हें एहसास भी न हुआ लपटों का
जब वे पहुँचने लगीं उनकी बरौनियों तक
वे अंत तक रहे बहादुर
वे अंत तक रहे वफादार
अंत तक रहे वे वैसे ही
एक चेहरे के कगार पर ठहरी
दो बूंदों की तरह
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कविता के पूर्व स्वेवस्की का उद्धरण अनुवादकों चेश्वाव मिवोश एवं पीटर डेल स्काट की तरफ से.
हर बार एक नए और गहरे एहसास से गुजारते हैं आपके प्रयास..
ReplyDeleteहर बार एक नए और गहरे एहसास से गुजारते हैं आपके प्रयास..
ReplyDeleteEternal love...
ReplyDeleteThnx sir..
बहुत गहराई है एक-एक बिम्ब में. धन्यवाद मनोज.
ReplyDeleteएक चेहरे के कगार पर ठहरी
ReplyDeleteदो बूंदों की तरह
सुन्दर!
मैं सहमत नहीं हूँ ! उन्हें बचाना चाहिए था एक दूसरे को ! आखिरकार आँखें का एक चेहरा होता है और चेहरे का एक शरीर !
ReplyDeleteमनोज भाई एसी रचनाओं से यह मुद्दा उजागर होता है की कविता शब्दों के जरिये बयां होती है पर क्या केवल शब्दों के जरिये पायी जा सकती है...? बहुत बहुत धन्यवाद एसे अनुभव के लिए.
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