मार्क स्ट्रैंड की एक कविता...
तुम ऐसा कहते हो : मार्क स्ट्रैंड
(अनुवाद : मनोज पटेल)
यह सब दिमाग में होता है, तुम कहते हो. और इसका
कोई लेना-देना नहीं सुख से. सर्दी का आना,
गर्मी का आना, दुनिया के सारे मौसम होते हैं दिमाग के पास.
मेरा हाथ थामकर तुम कहते हो कुछ होगा,
कुछ अनोखा जिसकी खातिर तैयार थे हम हमेशा से ही,
जैसे एशिया में एक दिन बाद आना सूरज का,
जैसे चले जाना चाँद का एक रात बिताकर हमारे साथ.
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कुछ अनोखा घटने के इंतज़ार में एक ज़िंदगी तो गुजारी ही जा सकती है |ऐसे ही किसी झूठे प्रलोभन में जिये जाते हैं लोग ! बहुत अच्छी कविता !आभार मनोज जी |
ReplyDeleteआह......वेइटिंग फॉर गोदो की याद दिला दी इस कविता ने --बहुत बढ़िया अनुवाद.....
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