फिलिस्तीनी कवि ताहा मुहम्मद अली का एक क़सीदा...
सपना : ताहा मुहम्मद अली
(अनुवाद : मनोज पटेल)
कभी
तुम्हें बिछड़ते देखता हूँ
सपने में,
और दुख से भर आता है
मेरा गला,
और चूंकि सिर्फ सपना ही था वह,
इसलिए जागने पर
भर उठता हूँ सुख से...
और गेहूं के खेतों से गुलजार रहता है दिन.
और तुम ही थीं वह दुख,
और तुम ही थीं वह सुख.
मगर अब...
सपना देखता हूँ कि आ रही हो तुम
और सुख से सराबोर हो जाता हूँ मैं,
और जागने पर पाता हूँ
सिर्फ सपना ही था वह,
और उमड़ आता है दुख
मेरे गले में,
और काँटों से ढँक उठती है शाम.
20.08.1988
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hamara sukh dukh kuch privjanon se juda hota hai.kisi ka sath sukh aur vidai dukh ke karan bante hain .magar chahkar bhi ham sukh ko apne vash mein nahin kar sakte.
ReplyDeleteहमे कभी सपनो मे होना होता है कभी हक़ीक़त मे / कभी हक़ीक़त के सुखों मे होना होता है कभी सपनो के सुखो मे/ कभी ह्क़ीक़त के दुखो मे होना होता है कभी सपनो के दुखों मे .
ReplyDeleteहमारा होना एक नादान मासूम तिफ्ल का होना है
हमारा होना सहसा अर्थवान हो उठता है
अपने होने की मासूमियत को देख पाने के बाद .
यथार्थ से टकरा कर टूटा हुआ सपना कभी सुख में कभी दुख में परिणत होता है ! अच्छी कविता ,सुंदर अनुवाद !
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