Tuesday, May 10, 2011

नाजिम हिकमत की दो कविताएँ


नाजिम हिकमत की दो और कविताएँ...














यह सफ़र 


हम दरवाजे खोलते हैं,
बंद करते हैं,
दरवाजों से होकर गुजरते हैं,
और अपने इकलौते सफ़र के अंत तक आ पहुँचते हैं  
                                                     कोई शहर नहीं,
                                                     कोई ठिकाना नहीं -- 
ट्रेन पटरी से उतर जाती है,
जहाज डूब जाते हैं 
हवाई जहाज गिर पड़ते हैं.
बर्फ पर बनाया जाता है नक्शा.
मगर यदि मैं 
                 फिर नए सिरे से शुरू कर सकूं यह सफ़र,
                                                                  मैं करूंगा. 
                              :: ::

फिर से अपने देश पर 

मेरे देश, मेरे घर, मेरी मातृभूमि,
तुम्हारा कुछ भी नहीं रहा मेरे पास, 
कपड़े की कोई टोपी नहीं 
या जूतों का कोई जोड़ा जो कभी चला करता था तुम्हारी सड़कों पर.
तुम्हारी आखिरी कमीज भी बहुत पहले फट कर तार-तार हो गई मेरी पीठ पर ;
वह घर के काते हुए सूत की थी. 
अब तुम केवल मेरे बालों की सफेदी में बसते हो,
                            मेरे दिल के धड़कने की नाकामी में,
                                                         मेरे माथे की लकीरों में,
मेरे देश,
मेरे घर,
मेरी मातृभूमि... 
                              :: ::

(अनुवाद : मनोज पटेल)

4 comments:

  1. यह तो कमाल हो गया. नाजिम हिकमत की एक साथ इतनी कवितायेँ पढाने के लिए सचमुच धन्यवाद आपको.

    ReplyDelete
  2. बहुत खूब मनोज जी, इंसानी संबंधों के राग-विराग के दरवाजे 'खोलना', 'बंद करना' और 'उनसे होकर गुजरने' के अनुभवों का लाजवाब सृजनात्मक रूप इन कविताओं में अभिव्यक्त होता दिखलाई पड़ता है। "मगर यदि मैं/ फिर नए सिरे से शुरू कर सकूं यह सफर,/ मैं करूंगा।" जीवन की 'पटरी' से उतरे संबंधों को फिर से जिलाती नाजिम हिकमत की बेहद खूबसुरत और जीवन में विश्वास करती पंक्तियाँ।

    ReplyDelete
  3. बहुत सुंदर अनुवाद !

    ReplyDelete
  4. उम्दा रचनाएँ... हर हाल में, हर परिस्थिति में सकारात्मक रुख की ओर अग्रसर भाव बहुत सुन्दर लगे

    ReplyDelete

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...