Friday, May 20, 2011

फदील अल-अज्ज़वी की छह कविताएँ


आज फदील अल-अज्ज़वी की छह कविताएँ 












पंचों के सामने 

मेरी एक अधूरी कविता में 
एक वाक्य को ललकारा दूसरे वाक्य ने 
और एक थप्पड़ जड़ा अपने दस्ताने से -- 
पंचों के सामने उसे 
द्वंद्व युद्ध के लिए बुलाते हुए.

लड़ाई के अंत में,
जैसा कि अक्सर होता है,
मेरे एक वाक्य की मौत हो गई 
और दूसरा खून बहाता पड़ा रहा पृष्ठ पर.   
मैं नहीं पड़ना चाहता था 
फौजदारी जांच-पड़ताल के पचड़ों में  
सवाल और जवाब में, 
और इसलिए उनके खून से सने अपने हाथों को धोकर 
मैनें फेंक दी पूरी कविता. 
                    :: :: ::

गुलामी में 

एक पुराने लोकगीत से 
गुलामों का एक जोड़ा 
बग़दाद के हमारे घर की छत पर गिर पडा. 
उन्हें पीठ से पीठ लगाकर 
एक रस्सी से बांधा गया था, 
और फटे-चिटे सफ़ेद कपड़े पहने हुए
वे रोए जा रहे थे. 

मुझे लगा कि वे समुद्री डाकुओं के किसी जहाज का इंतज़ार कर रहे थे.
मुझे लगा कि वे पेड़ों के ऊपर, क्षितिज की तरफ एकटक देख रहे थे.
मुझे लगा कि वे बहुत दूर के किसी द्वीप को याद कर रहे थे.

जब मैनें ऊपर जाकर उन्हें रस्सी से छुटकारा दिलाया 
वे जलने लगे मेरे हाथों में 
और तब्दील हो गए राख में. 
                    :: :: :: 

चिमनी 

एक चिमनी हवा में धुंआ उड़ाती है
कभी स्वप्न उड़ाती है 
तो कभी उदासी 
या एक कमरे में अपने अतीत की कहानियां सुना रहे  
कुछ लोगों के अवशेष उड़ाती है यह. 
चिमनी एक पुरुष की बाहों में सुस्ताती एक स्त्री की खामोशी उड़ाती है 
जो याद कर रही है रेगिस्तान में उग आए उस दहशतज़दा शहर को 
जो हवा में उड़ा रहा है अपनी स्मृतियाँ. 

दिन-ब-दिन एक चिमनी उड़ाती रहती है हमें  
किसी और आसमान की रात में 
हवा में बहुत दूर.
                    :: :: ::  

राख 

पलक झपकाती आँखें 
कहीं 
पेड़ों के बीच यहाँ-वहाँ,
हमें ध्यान से देखती हुईं 
जबकि हम वहाँ आ-जा रहे हैं 
जहां हमारे आस-पास कुछ जल रहा है.

इसकी राख को 
हम ज़िंदगी कहते हैं 
और कभी-कभी 
मौत भी.  
                    :: :: :: 

मार्गदर्शक 

हजारों साल के सफ़र के बाद भी 
कोई नहीं पहुँच पाया 
उस शहर तक. 

हमने खुली छोड़ दिया 
खिड़कियाँ दरवाज़े 
और आग लगा दिया 
सारे महाद्वीपों में.

अंधी गौरैया 
पहुंचाएगी हमें 
पानी के सोते तक.  
                     :: :: :: 

हर किसी के लिए उसका अपना पेड़ 

रेगिस्तान मेरे सामने 
ढेर लगा रहा था अपनी रेत का,
और थकान से चूर मेरा घोड़ा 
हिनहिना रहा था अस्तबल में. 
इसलिए मैं उठा लाया अपना थोड़ा सा सामान 
और अपने बीज बोने के लिए 
निकल गया भविष्य की सबसे दूर की घाटी को.
मुसाफिर से कभी मत कहो : लौट आओ ! 
वही काफी है जो वह पीछे छोड़ गया है. 

समुन्दर के झाग से रोशन हो जाती हैं आँखें,
जब कोई बादल घूंघट डाल रहा होता है चाँद पर. 

हर किसी के लिए उसका अपना पेड़.
जिस पर, किसी दिन आएँगे फल 
उसकी ज़िंदगी के. 
                    :: :: :: 
 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

3 comments:

  1. दिल को छूती कुछ सरल सी मुश्किल कवितायें !

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  2. फदील जी की कविता पढ़वाने के लिए हार्दिक आभार ..मुझे बहुत ही अच्छी लगी . बहुत ही अच्छी ...

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