Tuesday, May 17, 2011

नाजिम हिकमत : सोफिया से


नाजिम हिकमत की एक और कविता... 














सोफिया से  :  नाजिम हिकमत 
(अनुवाद : मनोज पटेल)
 
मैं बसंत ऋतु के एक दिन सोफिया पहुंचा, मेरी प्यारी.
नींबू के पेड़ों की खुशबू से भरा हुआ था तुम्हारा पैदायशी शहर. 

यही मेरा नसीब है 
कि तुम्हारे बिना भटकूँ दुनिया भर में, 
हम कर भी क्या सकते हैं...

सोफिया में, दीवारों से ज्यादा मायने रखते हैं पेड़.
लोग और पेड़ आपस में घुल-मिल जाते हैं यहाँ,
                                           खासतौर से पाप्लर का पेड़ 
                                           मानो बस दाखिल होने वाला हो मेरे कमरे में 
                                           और बैठने वाला हो लाल दरी पर...

क्या सोफिया कोई बड़ा शहर है ?
लम्बे रास्ते किसी शहर को बड़ा नहीं बनाते मेरी जान,
बल्कि कवियों की यादगार में बनें स्मारक उसे बड़ा बनाते हैं.
                                            सोफिया एक बड़ा शहर है...

हर शाम, लोग उमड़ पड़ते हैं इसकी सड़कों पर :
औरतें और बच्चे, जवान और बूढ़े,
हँसी-कहकहे, शोरगुल और धूमधड़ाका,
बातें करती भीड़ ऊपर और नीचे,
अगल-बगल, बाहों में बाहें डाले, हाथ में हाथ लिए...

इस्ताम्बुल में रमजान की रातों में,
लोग ऐसे ही घूमा करते थे 
                                             (यह तुम्हारे आने के पहले की बात है, मुनव्वर).    
नहीं... अब कहाँ रहीं वे रातें...
अगर मैं इस्ताम्बुल में होता इस वक़्त,
                                             तो क्या उन रातों को याद करने की सोचता भी ?
मगर इस्ताम्बुल से इतनी दूर 
                                             मैं हर चीज को याद करता हूँ,
यहाँ तक कि उस्कुदार जेल के मुलाकातियों वाले कमरे को भी...

मैं बसंत ऋतु के एक दिन सोफिया पहुंचा, मेरी प्यारी.
नींबू के पेड़ों की खुशबू से भरा हुआ था तुम्हारा पैदायशी शहर. 
तुम कभी सोच भी नहीं सकती कि तुम्हारे वतन के लोगों ने मेरा कैसा इस्तकबाल किया.
तुम्हारा पैदायशी शहर अब मेरे भाई का बसेरा भी है.
मगर भाई के बसेरे में भी, घर की याद नहीं जाती.

निर्वासन का हुनर साधना इतना आसान नहीं...
                                                                                24 मई 1957 
                                                                                                                       वर्ना
                              :: :: :: 

7 comments:

  1. नाजिम हिकमत की इतनी सारी कवितायें आपने पढ़ा दी हैं कि उनकी शैली पहचानी सी लगने लगी है, शुभकामनायें!

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  2. निर्वासन का हुनर साधना आसान नहीं...वाकई

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  3. "निर्वासन का हुनर साधना इतना आसन नहीं "

    और मैं सोंचता हूँ कि निरंतर उपेक्षा भी तो निर्वासन ही हैं ,
    हमारे हिन्दी के कवि कैसे इस उपेक्षा को साधते होंगे ?

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  4. आपका हर अनुवाद अप्रतिम होता है मनोज जी ! अनंत शुभकामनायें !

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  5. bahut hi sundar anuvaad....
    hardik badhai

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  6. kya kahoo. sirf ek kaamna... jab tak ham na thake padhte padhte aap uu hee ham tak pahunchate rahe ye rachnaaye. adviteey rachnaaye.

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