फदील अल-अज्ज़वी की एक और बेहतरीन कविता...
रेलवे स्टेशन में एक फिल्म : फदील अल-अज्ज़वी
(अनुवाद : मनोज पटेल)
जाड़े में एक रेलवे स्टेशन के भीतर,
किसी लम्बे सफ़र से लौटते हुए
मैं अपने आपको मुसाफिरों के एक सिनेमाघर में पाता हूँ,
कोई फिल्म देखते हुए जिसे समझ नहीं पाता,
क्योंकि मेरे पहुँचने के बहुत पहले ही शुरू हो चुकी थी वह.
एक फिल्म जो अंतहीन है.
इससे फर्क नहीं पड़ता कि आप कब उसे देखना शुरू करते हैं ;
उसके दृश्य दोहराए जाते हैं :
चोर पहने हुए होते हैं नायकों के मुखौटे ;
भारी बर्फबारी से गुजरती हैं फौजें किसी शहर पर धावा बोलने के लिए ;
और थके घोड़ों द्वारा खींची जा रही गाड़ियों के सामने
टहलते हैं जोकर ;
मोम के पंख पहने हुए लोग
उड़ते हैं तपती धूप में,
(अनजाने रास्तों से सुदूर ग्रहों की ओर जा रहे कीड़े),
आखिरकार कोई पा जाता है एक मोती, उसे फिर से खो देने के लिए.
और हमारा खून रिसता रहता है चादरों पर
एक सस्ते रैन बसेरे में.
मुर्दा दर्शक और ज़िंदा दर्शक, सिनेमाघर में मेरे आस-पास.
कोई आता है, कोई जाता है.
हाल में छाया रहता है अंधेरा
और हमारी फिल्म चलती रहती है अंतहीन.
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nice...
ReplyDeleteवैचारिक (यह तो है ही )से लेकर सामाजिक क्रान्ति (सम्भावना होने की ) है आपका ब्लॉग.
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